यो मर्त्ये॑ष्व॒मृत॑ ऋ॒तावा॑ दे॒वो दे॒वेष्व॑र॒तिर्नि॒धायि॑। होता॒ यजि॑ष्ठो म॒ह्ना शु॒चध्यै॑ ह॒व्यैर॒ग्निर्मनु॑ष ईर॒यध्यै॑ ॥१॥
yo martyeṣv amṛta ṛtāvā devo deveṣv aratir nidhāyi | hotā yajiṣṭho mahnā śucadhyai havyair agnir manuṣa īrayadhyai ||
यः। मर्त्येषु। अ॒मृतः॑। ऋ॒तऽवा॑। दे॒वः। दे॒वेषु॑। अ॒र॒तिः। नि॒ऽधायि॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। म॒ह्ना। शु॒चध्यै॑। ह॒व्यैः। अ॒ग्निः। मनु॑षः। ई॒र॒यध्यै॑॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब बीस ऋचावाले दूसरे सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में यथार्थ माननेवाले पुरुषों के कृत्य को कहते हैं ॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
मर्त्येषु अमृतः
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाप्तजनकृत्यमाह ॥
हे मनुष्या ! योऽग्निर्विद्युदिव मर्त्येष्वमृतः ऋतावा देवेषु देवोऽरतिर्होता मह्ना यजिष्ठो हव्यैस्सहितो मनुष ईरयध्यै शुचध्यै स हृदि निधायि ॥१॥
डॉ. तुलसी राम
आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड
The duties of absolutely truthful enlightened persons are stated.
O men! God is Immortal among the mortals, is embodiment of Truth endowed with Divine virtues, actions and nature and the most desirable among the divine persons and articles. He is the Omnipresent, Giver of true happiness, Adorable with devotion on account of His Greatness, has been set in heart for its purification and true elevation, like the fire is placed at the altar to be kindled with oblations for various purposes.
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात राजा, प्रजा व आप्त (विद्वान) पुरुषांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
