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इळा॑मग्ने पुरु॒दंसं॑ स॒निं गोः श॑श्वत्त॒मं हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iḻām agne purudaṁsaṁ saniṁ goḥ śaśvattamaṁ havamānāya sādha | syān naḥ sūnus tanayo vijāvāgne sā te sumatir bhūtv asme ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इळा॑म्। अ॒ग्ने॒। पु॒रु॒ऽदंस॑म्। स॒निम्। गोः। श॒श्व॒त्ऽत॒मम्। हव॑मानाय। सा॒ध॒। स्यात्। नः॒। सू॒नुः। तन॑यः। वि॒जाऽवा॑। अ॒ग्ने॒। सा। ते॒। सु॒ऽम॒तिः। भू॒तु॒। अ॒स्मे इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:6» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:27» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् ! आप (हवमानाय) स्पर्द्धा करते हुए के लिये (गोः) पृथिवी के (शश्वत्तमम्) अतीव अनादि स्वरूप को (पुरुदंसम्) जो कि बहुत कर्मों से युक्त है उस (सनिम्) विभागयुक्त को तथा (इळाम्) प्रशस्त भूमि को (साध) सिद्ध करो जिससे (नः) हमारा (विजावा) विशेष गतिवाला वा विशेष ज्ञानवाला वा विशेष प्रतिज्ञावाला (सूनुः) उत्पन्न (तनयः) पुत्र हो। हे (अग्ने) विद्वान् ! जो (ते) आपकी (सुमतिः) सुन्दर श्रेष्ठ मति है (सा) वह (अस्मे) हम लोगों में (भूतु) हो ॥११॥
भावार्थभाषाः - यदि मनुष्य अग्नि और पृथिवी आदि के स्वरूप को जानकर अच्छे प्रकार कार्यों में प्रयुक्त करें, तो उनमें पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, विद्या और ऐश्वर्य समर्थित हों ॥११॥। इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जानना चाहिये ॥ यह तृतीय मण्डल में छठवाँ सूक्त सत्ताईसवाँ वर्ग द्वितीय अष्टक में आठवाँ अध्याय और द्वितीय अष्टक समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वेदज्ञान-उत्तम सन्तान-सुमति व्याख्या ५.११ पर द्रष्टव्य है। प्रभु से जीवन को उत्तम बनाने के लिये प्रार्थना से परिपूर्ण यह सूक्त है। अगले सूक्त में उत्तम जीवन का चित्रण करते हुए कहते हैं॥ ११॥

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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने त्वं हवमानाय गोः शश्वत्तमं पुरुदंसं सनिमिळां च साध यतो नो विजावा सूनुस्तनयः स्यात्। हे अग्ने या ते सुमतिर्वर्त्तते साऽस्मे भूतु ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इळाम्) स्तोतुमर्हां भूमिम् (अग्ने) विद्वन् (पुरुदंसम्) बहुकर्मयुक्तम् (सनिम्) विभक्तम् (गोः) पृथिव्याः (शश्वत्तमम्) अतिशयेनानादिभूतं स्वरूपम् (हवमानाय) स्पर्द्धमानाय (साध) साध्नुहि (स्यात्) (नः) अस्माकम् (सूनुः) (तनयः) (विजावा) (अग्ने) (सा) (ते) तव (सुमतिः) (भूतु) (अस्मे) अस्मासु ॥११॥
भावार्थभाषाः - यदि मनुष्या अग्नेः पृथिव्यादेश्च स्वरूपं विज्ञाय कार्य्येषु संप्रयुञ्जीरंस्तर्हि तेषु पुत्रपौत्रधनधान्यविद्यैश्वर्य्यं प्रभूतं भवेदिति॥११॥ अत्र विद्वदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति तृतीयमण्डले षष्ठं सूक्तं सप्तविंशो वर्गो द्वितीयेऽष्टकेऽष्टमोऽध्यायो द्वितीयमष्टकं च पूर्तिमगात् ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, lord of heaven and earth, give us, we pray, the abundance of mother earth which overflows with possibilities of action and achievement. Give us liberal gifts of cows and the universal form of speech and knowledge and lasting wealth. Make it possible for the performer of yajna. Bless us with brave and heroic children and grand children. Bless us with the favour of your kindness and benevolence under your benign eye.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Nature and deeds of the learned persons.

अन्वय:

O learned leader ! I call upon you to grant me the eternal nature of the earth. Because of it, many works are accomplished and properly divided and also the land. May your good knowledge be ever with us so that may we be blessed with the children. In fact, these children spread knowledge and righteousness and are illustrious fulfilling the noble mission of their lives.

भावार्थभाषाः - If men know the nature of the fire, earth and other elements and utilize that knowledge for various purposes, they may be blessed with good progeny, wealth, food grains and other kinds of prosperity in abundance.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जर माणसांनी अग्नी व पृथ्वी इत्यादीच्या स्वरूपाला जाणून चांगल्याप्रकारे कार्यात संयुक्त केले तर त्यांना पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, विद्या व ऐश्वर्य प्राप्त होईल. ॥ ११ ॥