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मि॒त्रो दे॒वेष्वा॒युषु॒ जना॑य वृ॒क्तब॑र्हिषे। इष॑ इ॒ष्टव्र॑ता अकः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mitro deveṣv āyuṣu janāya vṛktabarhiṣe | iṣa iṣṭavratā akaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मि॒त्रः। दे॒वेषु॑। आ॒युषु॑। जना॑य। वृ॒क्तऽब॑र्हिषे। इषः॑। इ॒ष्टऽव्र॑ताः। अ॒क॒रित्य॑कः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:59» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मित्रत्व से ईश्वरोपासना विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (मित्रः) ईश्वर (वृक्तबर्हिषे) छोड़ा है जल जिसने उस (जनाय) मनुष्य आदि के लिये (देवेषु) उत्तम (आयुषु) जीवनों में (इष्टव्रताः) चाहे हुये काम जिनसे होते उनकी (इषः) इच्छाओं को (अकः) पूर्ण करता है, उसकी सब लोग सेवा करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा अन्याय से रहित भक्त मनुष्यों को सिद्ध इच्छावाले करता है, वही सब लोगों को ध्यान करने योग्य है ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'वृक्ति बर्हिस्' लोग

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (मित्रः) = रोगों से त्राण करनेवाला सूर्य (देवेषु आयुषु) = देववृत्तिवाले मनुष्यों में भी (वृक्तबर्हिषे) = जिसने हृदयस्थली से वासनाओं को उखाड़ दिया है, उस (जनाय) = मनुष्य के लिए (इष्टव्रता) = वाञ्छनीय व्रतोंवाली (इष:) = प्रेरणाओं को (अकः) = करता है। [२] देववृत्तिवाले मनुष्य सूर्योदय से पूर्व ही जाग जाते हैं 'उषर्बुधो हि देवाः' । इन देवों में भी जो व्यक्ति वासनाओं के विनाश से हृदय को पवित्र बनाते हैं वे, 'वृक्तबर्हिस्' हैं। इन वृक्तबर्हिस् लोगों को प्रभु की प्रेरणा सुन पड़ती है। यह प्रेरणा उन्हें इष्ट व्रतों की ओर प्रेरित करती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु का बनाया हुआ सूर्य 'निरन्तर क्रियाशीलता' रूप प्रेरणा देता हुआ वस्तुतः मित्र होता है। यह निरन्तर क्रियाशीलता हमें वासनाशून्य हृदय से युक्त 'वृक्तबर्हिस्' बनाती है - यह व्यक्ति देववृत्तिवाला बनता है। यह सूक्त सूर्य-किरणों के सम्पर्क से सब रोगों के विनष्ट होने का संकेत करता है। ये नीरोग व्यक्ति ज्ञानप्राप्ति में रुचिवाले होकर ज्ञानदीप्ति से अत्यन्त दीप्त होते हैं, सो 'ऋभवः' कहलाते हैंउरु भान्ति। अगले सूक्त का देवता 'ऋभवः' ही है—
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मित्रत्वेनेश्वरोपासनविषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो मित्र ईश्वरो वृक्तबर्हिषे जनाय देवेष्वायुष्विष्टव्रता इषोऽकस्तं सर्वे भजध्वम् ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) सखा (देवेषु) दिव्येषु (आयुषु) जीवनेषु (जनाय) मनुष्याद्याय (वृक्तबर्हिषे) वृक्तं बर्हिरुदकं येन तस्मै (इषः) इच्छाः (इष्टव्रताः) इष्टकर्माणः (अकः) करोति ॥९॥
भावार्थभाषाः - यः परमात्माऽन्यायवर्जितान् भक्तान्मनुष्यान्त्सिद्धेच्छान् करोति स एव सर्वैर्ध्यातव्य इति ॥९॥ अत्र मित्रादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनषष्टितमं सूक्तं षष्ठो वर्ग्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Among the brilliant and generous people and among the average people too, Mitra, radiant lord of universal love and friendship, creates and provides for fulfilment of the desires of the man of renunciation dedicated to yajnic offerings, in response to his observance of the chosen vows of holy discipline.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The way of the worship of or communion with God as Friend is told.

अन्वय:

O men! worship that One God, Who is friend of all and Who fulfils the noble desires of devoted to Him and Who perform Yajna, and are living among the divine men.

भावार्थभाषाः - That God alone is to be meditated upon Who makes the devotees free from all injustice. Such people are able to accomplish all their noble desires.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा अन्यायरहित भक्त माणसांची इच्छा पूर्ती होईल अशी व्यवस्था करतो, त्याचेच सर्वांनी ध्यान करावे. ॥ ९ ॥