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स्व॒युरि॑न्द्र स्व॒राळ॑सि॒ स्मद्दि॑ष्टिः॒ स्वय॑शस्तरः। स वा॑वृधा॒न ओज॑सा पुरुष्टुत॒ भवा॑ नः सु॒श्रव॑स्तमः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svayur indra svarāḻ asi smaddiṣṭiḥ svayaśastaraḥ | sa vāvṛdhāna ojasā puruṣṭuta bhavā naḥ suśravastamaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒ऽयुः। इ॒न्द्र॒। स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। स्मत्ऽदि॑ष्टिः। स्वय॑शःऽतरः। सः। व॒वृ॒धा॒नः। ओज॑सा। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। भव॑। नः॒। सु॒श्रवः॑ऽतमः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:45» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुष्टुत) बहुतों से प्रशंसित (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्यवाले ! जो आप (स्वयुः) धन को प्राप्त (स्वराट्) स्वतन्त्र राज्यकर्त्ता (स्मद्दिष्टिः) कल्याण कर्म का उपदेश देनेवाले और (स्वयशस्तरः) अपने यश धन और प्रशंसा से गम्भीर (असि) हैं (सः) वह (ओजसा) पराक्रम से (वावृधानः) वृद्धि को प्राप्त (सुश्रवस्तमः) श्रेष्ठ धन से युक्त बातचीत के अत्यन्त सुननेवाले (नः) हमलोगों के लिये (भव) होइये ॥५॥
भावार्थभाषाः - वही चक्रवर्त्ती राजा होने के योग्य होता है कि जो अत्यन्त प्रशंसायुक्त गुण-कर्म और स्वभाववाला है और वही राजा सबका वृद्धिकारक होता है ॥५॥ इस सूक्त में सूर्य विद्वान् और राजा के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतालीसवाँ सूक्त और नववाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्वराट्-स्मद्दिष्टिः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गतमन्त्र के अनुसार 'सम्पारण वसु' को प्राप्त करनेवाले इन्द्र हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (स्वयुः) = [स्व=धन] धन को अपने साथ जोड़नेवाला धनवान् बनता है। इस प्रकार तू (स्व-राट् असि) = आत्मदीप्तिवाला होता है। (स्मद्दिष्टि:) = [स्मत् =सुमत्] आत्मदीप्ति के कारण सदा भद्र वाक्योंवाला होता है सदा शुभ शब्दों का ही उच्चारण करता है। (स्वयशस्तरः) = अपने उत्तम कर्मों के कारण अत्यन्त यशस्वी होता है। धन के साथ आत्मप्रवणता [स्वराट्] व भद्र शब्दों का उच्चारण इसे बड़ा यशस्वी बनाता है। सामान्यतः धन के साथ विषयासक्ति व अभिमान का सम्बन्ध है। इसके जीवन में विषयासक्ति का स्थान आत्मदीप्ति लेती है और अभिमान के स्थान में यह भद्रता व विनीततावाला होता है। [२] (सः) = वह तू (ओजसा) = ओजस्विता से (वावृधान:) = अत्यन्त बढ़ता हुआ हे (पुरुष्टुत) = बहुतों से स्तुत होनेवाला ! (नः) = हमारे लिए (सुश्रवस्तमः) = अत्यन्त उत्तम ज्ञानवाला (भव) = हो- हमें सदा उत्तम ज्ञान को देनेवाला बन ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ – धनवान् होकर हम आत्मदीप्तिवाले व भद्रवाक्य बोलनेवाले बनें। इस प्रकार यशस्वी जीवनवाले हों। बहुतों से प्रशंसित होते हुए हम ओजस्वी व उत्तम ज्ञानी बनें। यह सूक्त मुख्यरूप से विषयों में न फँसने का संकेत करता है। अगले सूक्त में भी यही विषय अन्य शब्दों में वर्णित हो रहा है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे पुरुष्टुतेन्द्र ! यस्त्वं स्वयुः स्वराट् स्मद्दिष्टिः स्वयशस्तरोऽसि स त्वमोजसा वावृधानः सुश्रवस्तमो नोऽस्मभ्यं भव ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वयुः) यः स्वं धनं याति सः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (स्वराट्) यः स्वेनैव राजते (असि) (स्मद्दिष्टिः) कल्याणोपदेष्टा (स्वयशस्तरः) स्वकीयं यशो धनं प्रशंसनं वा यस्य सोऽतिशयितः (सः) (वावृधानः) वर्द्धमानः (ओजसा) पराक्रमेण (पुरुष्टुत) बहुभिः प्रशंसित (भव)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (सुश्रवस्तमः) सुष्ठु धनः श्रवणयुक्तः सोऽतिशयितः ॥५॥
भावार्थभाषाः - स एव सम्राट् भवितुं योग्यो जायते योऽतिशयेन प्रशंसितगुणकर्मस्वभावो भवति स एव सम्राट् सर्वेषां वर्द्धको भवतीति ॥५॥ अत्र सूर्य्यविद्वद्राजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चचत्वारिंशत्तमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, you are self-sufficient, self-refulgent, sovereign, innately honourable, self-growing with your own lustre, universally admired and celebrated. Be most kind and benevolent to us, we pray.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The qualities of enlightened persons are further stated.

अन्वय:

O Indra (prosperous king) ! you are possessor opulence. You shine with your splendor. You teach us of our means of welfare. You are renowned and glorious. Ever-increasing in vigor, become the most bountiful to us and bestow knowledge and wealth. You are praised by many because of listening to our requests most attentively.

भावार्थभाषाः - He alone deserves to be a sovereign who is the most virtuous and righteous person. Only such sovereign can be the source of progress of all.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - तोच चक्रवर्ती राजा होण्यायोग्य असतो जो अत्यंत प्रशंसायुक्त गुण, कर्म, स्वभावाचा असतो. तोच सर्वांची उन्नती करणारा असतो. ॥ ५ ॥