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इन्द्र॑ त्वा वृष॒भं व॒यं सु॒ते सोमे॑ हवामहे। स पा॑हि॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra tvā vṛṣabhaṁ vayaṁ sute some havāmahe | sa pāhi madhvo andhasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। त्वा॒। वृ॒ष॒भम्। व॒यम्। सु॒ते। सोमे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। सः। पा॒हि॒। मध्वः॑। अन्ध॑सः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:40» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तृतीयाष्टक के तृतीयाध्याय का आरम्भ तथा तृतीय मण्डल में नव ऋचावाले चालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राज प्रजा के विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! (वयम्) हम लोग (मध्वः) मधुर आदि गुणों से युक्त (अन्धसः) अन्न आदि के (सुते) उत्पन्न (सोमे) ऐश्वर्य्य वा ओषधियों के समूह में जिस (वृषभम्) बलिष्ठ (त्वा) आपको (हवामहे) पुकारैं (सः) वह आप हम लोगों की (पाहि) रक्षा कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो प्रजाजन राजा का हृदय से सत्कार करके इस राजा के लिये ऐश्वर्य्य देवें, उनकी राजा अपने आत्मा के सदृश वा जैसे वैद्यजन ओषधियों से रोगी की रक्षा करता है, वैसे रक्षा करे ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'वृषभ' प्रभु का आराधन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = [इन्दौ रयते] सोमरक्षण होने पर हमारे जीवनों में रमण करनेवाले प्रभो ! (वृषभम्) = सुखों के वर्षक (त्वा) = आपको (वयम्) = हम (सोमे सुते) = सोम का उत्पादन होने पर (हवामहे) = पुकारते हैं। आपकी आराधना करते हुए हम यही चाहते हैं कि आपकी कृपा से हम इस सोम के रक्षण में समर्थ हों । (सः) = वे आप (मध्वः) = इस मधुर-जीवन को मधुर बनानेवाले, (अन्धसः) = सोम का [आध्यातव्यः भवति] (पाहि) = रक्षण करिए। [२] प्रभु की उपासना में तत्पर व्यक्ति जीवन में व्यर्थ की बातों में विलासिता में फँसता नहीं। यह विलासिता में न फँसना ही सोमरक्षण का साधन बनता है। इस सोमरक्षक के लिए ही प्रभु सुखों का वर्षण करनेवाले होते हैं। इस प्रकार जब हम सोम का रक्षण कर पाते हैं, तो अपने हृदयों में प्रभु का दर्शन करने की योग्यतावाले होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु की उपासना द्वारा उत्पन्न सोम का रक्षण करनेवाले बनें। यही सब सुखों की प्राप्ति का मूल है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाविषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! वयं मध्वोऽन्धसः सुते सोमे यं वृषभं त्वा हवामहे स त्वमस्मान् पाहि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (त्वा) त्वाम् (वृषभम्) बलिष्ठम् (वयम्) (सुते) निष्पन्ने (सोमे) ऐश्वर्य्य ओषधिगणे वा (हवामहे) (सः) (पाहि) रक्ष (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (अन्धसः) अन्नादेः ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये प्रजाजना राजानं हृदयेन सत्कृत्याऽस्मा ऐश्वर्य्यं प्रयच्छेयुस्तान् राजा स्वात्मवद्वैद्य ओषधै रोगिणमिव रक्षेत् ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - In this soma-yajna of the creative business of life when the time is ripe, O lord of honour and majesty, Indra, we invoke and invite you, lord of bliss, mighty brave and generous as rain showers. Come, grace the yajna, and protect and promote the honey sweets of food, energy and the joy of life.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The duties of the rulers and the people are told.

अन्वय:

O Indra (giver of great prosperity)! we invite you who are powerful on the occasion of the effusion of the juice of invigorating herbs and sweet delicious food and essence and are also on the acquisition of wealth. Please protect us.

भावार्थभाषाः - Those people who cordially respect the king and offer him food and wealth (tax) as a mark of respect, the king should protect them like his own self, as a physician protects a patient by administering suitable medicines.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजा व प्रजेच्या गुणवर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाचा पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.

भावार्थभाषाः - जी प्रजा राजाचा हृदयाने सत्कार करते व राजाला ऐश्वर्य प्राप्त करून देते व जसे वैद्य लोक औषधींनी रोग्याचे रक्षण करतात तसे राजाने आपल्या आत्म्याप्रमाणे प्रजेचे रक्षण करावे. ॥ १ ॥