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अ॒र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॒ह्यथो॑ शक्र परा॒वतः॑। उ॒ लो॒को यस्ते॑ अद्रिव॒ इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arvāvato na ā gahy atho śakra parāvataḥ | u loko yas te adriva indreha tata ā gahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒र्वा॒ऽवतः॑। नः॒। आ। ग॒हि॒। अथो॒ इति॑। श॒क्र॒। प॒रा॒ऽवतः॑। ऊँ॒ इति॑। लो॒कः। यः। ते॒। अ॒द्रि॒ऽवः॒। इन्द्र॑। इ॒ह। ततः॑। आ। ग॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:37» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:22» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा और प्रजाविषय को परस्पर सम्बन्ध से कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अद्रिवः) बहुत मेघों से युक्त सूर्य के सदृश वर्त्तमान (शक्र) सामर्थ्यवान् (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से सुख के दाता ! (इह) इस संसार में (यः) जो (ते) आपका (लोकः) निवासस्थान है इस स्थान से (नः) हम लोगों को (आ, गहि) प्राप्त हूजिये (अथो) इसके अनन्तर (परावतः) दूर से भी हम लोगों को प्राप्त हूजिये (ततः) और इससे (आगहि) उत्तम प्रकार अन्य स्थान में जाइये ॥११॥
भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य लोग प्रीति से राजा को बुलावैं और वह राजा उन प्रजाजनों के समीप अपने देश से प्राप्त हो और उस देश से अन्य देश में भी जाय, इस प्रकार राजा और प्रजा जन परस्पर स्नेह की वृद्धि के लिये कर्मों को निरन्तर करैं ॥११॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के कामों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस सूक्त से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सैंतीसवाँ सूक्त और बाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभुप्राप्ति की अभिलाषा

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (अर्वावत:) = समीप देश से (नः) = हमें (आगहि) = प्राप्त होइये । (अथ उ) = और निश्चय से (परावतः) दूर देश से भी हमें प्राप्त होइये। दूर व निकट जहाँ भी आप हों, वहाँ से आप हमें प्राप्त होइये। [२] (उ) = और हे (अद्रिवः) = [अत्तिभक्षयति शत्रून् इति अद्रिः = वज्रम्] हे वज्रहस्त (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (यः ते लोकः) = जो भी आपका लोक हो, (तत:) = वहाँ से (इह आगहि) = यहाँ प्राप्त होइये। संक्षेप में, प्रार्थना यह है कि समीप व दूर अथवा जहाँ कहीं भी आप हों, वहाँ से आप हमें प्राप्त होइये। आप सर्वव्यापक हैं। पर हम आपको ठीक-ठीक जान तो नहीं पाते, अतः यही प्रार्थना करते हैं कि जहाँ कहीं भी आप हों, आप वहाँ से हमें प्राप्त होइये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारी एक ही प्रबल अभिलाषा हो कि हम प्रभु को प्राप्त कर सकें। सूक्त का सार यही है कि हम वासना को विनष्ट करके प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें। अगले सूक्त में भी प्रभुदर्शन का ही विषय चलता है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाजनविषयं परस्परेणाह।

अन्वय:

हे अद्रिवः शक्रेन्द्र इह यस्ते लोकोऽस्ति तस्मादर्वावतो न आगह्यथो परावतो न आगहि तत उ अन्यत्र गच्छ ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्वावतः) अर्वाचीनात् (नः) अस्मान् (आ) (गहि) आगच्छ प्राप्नुहि (अथो) आनन्तर्ये (शक्र) शक्तिमन् (परावतः) दूरात् (उ) (लोकः) निवासस्थानम् (यः) (ते) तव (अद्रिवः) अद्रयो बहवो मेघा विद्यन्ते यस्य सूर्यस्य तद्वद्वर्त्तमान (इन्द्र) ऐश्वर्य्येण सुखप्रद (इह) अस्मिन् संसारे (ततः) तस्मात् (आ) (गहि) ॥११॥
भावार्थभाषाः - यथा मनुष्याः प्रीत्या राजानमाह्वयेयुस्तत्सामीप्यं स स्वदेशादागच्छेत् तस्मादन्यत्र गच्छेदेवं राजप्रजाजनाः परस्परेषु स्नेहवर्धनाय कर्माणि सततं कुर्युरिति ॥११॥ अत्र राजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तत्रिंशत्तमं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of might, ruler of the clouds, wielder of the thunderbolt and refulgent as the sun, come to us from far and from near, wherever you are. And whatever or wherever your abode, from there come to us here and now.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The relationship between the ruler and the people is told.

अन्वय:

O Indra! you are giver of happiness with your wealth. O shining like the sun ! come to us whether from a far or nigh, whatever or wherever be your residence. Come to us in this world and then go else where you desire.

भावार्थभाषाः - When men invite a ruler with love, he should go to them from his residence and from there he may go elsewhere as desired by him. In this way, the rulers and the people should meet and perform all (take) actions for intensification of their mutual love.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे माणसांनी प्रेमाने आमंत्रित केल्यास राजा आपल्या देशातील प्रजेला भेटतो, तसे त्याने इतर देशातही जावे. राजा व प्रजा यांनी परस्पर सतत स्नेह वर्धनाचे कार्य करावे. ॥ ११ ॥