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पु॒रो॒ळा अ॑ग्ने पच॒तस्तुभ्यं॑ वा घा॒ परि॑ष्कृतः। तं जु॑षस्व यविष्ठ्य॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

puroḻā agne pacatas tubhyaṁ vā ghā pariṣkṛtaḥ | taṁ juṣasva yaviṣṭhya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रो॒ळाः। अ॒ग्ने॒। प॒च॒तः। तुभ्य॑म्। वा॒। घ॒। परि॑ऽकृतः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:28» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:31» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यविष्ठ्य) अतिशय युवा पुरुषों में चतुर (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी जन ! जो (तुभ्यम्) आपके लिये (पुरोळाः) वेद विधि से संस्कारयुक्त (पचतः) पाककर्त्ता हुआ (वा) अथवा (परिष्कृतः) सब प्रकार शुद्ध किया गया है (तम्) उसकी (घ) ही (जुषस्व) सेवा करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे भोजन में प्रीतिकर्त्ता पुरुष अपने लिये उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त अन्न आदि पदार्थों को सिद्ध और उनका भोजन करके आनन्दयुक्त होता है, वैसे ही उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त हवन की सामग्री को प्राप्त होकर अग्नि सम्पूर्ण जनों को आनन्द देता है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञान का परिपाक व परिष्कार

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए ही (पुरोडा:) = यह [पुर: दाश्यते] सृष्टि के प्रारम्भ में दिया गया वेदज्ञान (पचत:) = मेरे से पकाया गया है। जैसे एक बालक अपने पाठ को अभ्यास से पकाता है, इसी प्रकार इस जीवन के प्रातः सवन में [प्रथम २४ वर्षों में] मैंने इस वेदज्ञान को परिपक्व किया है और (वा घा) = निश्चय से (परिष्कृत:) = इसे परिष्कृत किया है- आचार्यों द्वारा इसे अत्यन्त परिमार्जित कर लिया है । (२) हे (यविष्ठ्य) = हमारे अज्ञानों को दूर करने व ज्ञानों को प्राप्त करानेवालों में सर्वश्रेष्ठ प्रभो! आप (तं जुषस्व) = हमारे इस वेदज्ञान के परिपक्व व परिष्कृत करने को देखकर प्रसन्न होइये। आपके लिए हमारा यह कार्य प्रीतिकर हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- जीवन का प्रथमकाल ज्ञान की परिपक्वता व परिष्कार के लिए ही हो ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे यविष्ठ्याग्नेऽग्निरिव यस्तुभ्यं पुरोडाः पचतो वा परिष्कृतोऽस्ति तं घ जुषस्व ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरोळाः) यो विधिना संस्कृतः (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (पचतः) पाकं कुर्वन्। अत्र पच धातोरौणादिकोऽतच्प्रत्ययः। (तुभ्यम्) (वा) पक्षान्तरे (घ) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (परिष्कृतः) सर्वतः शुद्धः संपादितः (तम्) (जुषस्व) (यविष्ठ्य) यविष्ठ्येष्वतिशयेन युवसु कुशलस्तत्सम्बुद्धौ ॥२॥
भावार्थभाषाः - यथा भोजनप्रियः स्वार्थानि सुसंस्कृतान्यन्नादीनि निष्पाद्य भुक्त्वाऽऽनन्दो जायते तथैव सुसंस्कृतानि हवींषि प्राप्याऽग्निः सर्वानानन्दयति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, most youthful creative power of universal energy and intelligence, purified, refined and matured is this offering of love and faith for you. Accept it, enjoy it, and let the fragrance rise and pervade the spaces.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The subject of Agni is further explained.

अन्वय:

O most energetic young man ! you are full of splendor like the fire. PURODĀSHA the cake with butter properly cooked is dressed for you. Accept it please.

भावार्थभाषाः - As a man fond of good food becomes happy by taking well cooked food, so the fire gladdens all by taking well prepared oblations.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा भोजनप्रिय पुरुष स्वतःसाठी संस्कारित अन्नपदार्थांचे भोजन करून आनंदी होतो, तसेच संस्कारित हवन सामग्री प्राप्त करून अग्नी संपूर्ण लोकांना आनंद देतो. ॥ २ ॥