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पु॒री॒ष्या॑सो अ॒ग्नयः॑ प्राव॒णेभिः॑ स॒जोष॑सः। जु॒षन्तां॑ य॒ज्ञम॒द्रुहो॑ऽनमी॒वा इषो॑ म॒हीः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

purīṣyāso agnayaḥ prāvaṇebhiḥ sajoṣasaḥ | juṣantāṁ yajñam adruho namīvā iṣo mahīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒री॒ष्या॑सः। अ॒ग्नयः॑। प्र॒व॒णेभिः॑। स॒ऽजोष॑सः। जु॒षन्ता॑म्। य॒ज्ञम्। अ॒द्रुहः॑। अ॒न॒मी॒वाः। इषः॑। म॒हीः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:22» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! आप लोग (पुरीष्यासः) पालक पृथिवी आदि पदार्थों में व्यापक भाव से वर्त्तमान (अग्नयः) अग्नियों के सदृश तेजयुक्त (सजोषसः) तुल्य प्रीति के निर्वाहक (अद्रुहः) द्वेषरहित (अनमीवाः) रोग से रहित हुए (प्रवणेभिः) गमन आदिकों से (यज्ञम्) मेलरूप यज्ञ (इषः) अन्न और (महीः) श्रेष्ठ वाणियों का (जुषन्ताम्) सेवन करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि आदि पदार्थ परस्पर मिलकर अनेक कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही मित्रभाव से वर्त्तमान रोग से रहित हुए विद्वान् लोग धनधान्य ऐश्वर्य्य और विद्या को प्राप्त होवें ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अद्रोह

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्नयः) = प्रगतिशील जीव ! (पुरीष्यासः) = सदा उत्तम अन्न का सेवन करनेवाले होते हैं [पुरीष = अन्नम् श० ८।१।४।५] । सात्त्विक अन्न का सेवन इनकी बुद्धि को भी सात्त्विक बनाता है। ये अग्नि (प्रावणेभिः) = प्रकृष्ट रक्षणों के साथ (सजोषसः) = समानरूप से प्रीतिवाले होते हैं। ये शरीर, मन व बुद्धि तीनों का रक्षण करते हैं- तीनों के रक्षण को समान महत्त्व देते हैं । [२] ये अग्नि (यज्ञं जुषन्ताम्) = सदा यज्ञात्मक उत्तम कार्यों का सेवन करते हैं। (अद्रुहः) = कभी किसी का द्रोह नहीं करते। (अनमीवा:) = रोगरहित होते हैं और (मही: इष:) = महत्त्वपूर्ण प्रेरणाओं को ये प्राप्त करनेवाले होते हैं, अर्थात् अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणाओं को ये सुनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए हम शरीर, मन व बुद्धि का रक्षण करें। यज्ञशील हों। द्रोह से ऊपर उठें, नीरोग हों। प्रभु - प्रेरणाओं को सुननेवाले बनें ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वांसो भवन्तः पुरीष्यासोऽग्नय इव सजोषसोऽद्रुहोऽनमीवाः सन्तो प्रवणेभिर्यज्ञमिषो महीश्च जुषन्ताम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरिष्यासः) पुरीषेषु पालकेषु पृथिव्यादिषु व्यापकत्वेन भवाः (अग्नयः) पावका इव वर्त्तमानाः (प्रवणेभिः) गमनादिभिः। अत्रान्येषामपीत्याद्यचो दीर्घः। (सजोषसः) समानप्रीतिसेवनाः (जुषन्ताम्) सेवन्ताम् (यज्ञम्) सङ्गतिमयम् (अद्रुहः) द्वेषरहिताः (अनमीवाः) नीरोगाः (इषः) अन्नानि (महीः) महतीर्वाचः। महीति वाङ्ना०। निघं०। १। ११ ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्न्यादयः पदार्थाः परस्परं मिलितास्सन्तोऽनेकानि कार्य्याणि साध्नुवन्ति तथैव सखायोऽरोगास्सन्तो विद्वांसो धनधान्यैश्वर्यं विद्याश्च प्राप्नुवन्तु ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the vital fires of fertility come together to the earth by straight paths, free from negativities and disease, and participate in the yajna and bless us with invigorating foods and energies of high order.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The knowledge about the Agni is imparted.

अन्वय:

O learned persons! accept and serve this Yajna in the form of the association with the enlightened persons, giving food and good speech with proper movements like the fires on the earth. You do it by loving one another and free from malice and diseases.

भावार्थभाषाः - As the fire and other elements accomplish many works when duly combined together, in the same manner, the enlightened persons should acquire wealth, food grains, prosperity and knowledge by becoming friendly to each other, and free from the diseases.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अग्नी इत्यादी पदार्थ परस्पर मिळून अनेक कार्य सिद्ध करतात, तसेच रोगरहित विद्वान लोकांनी मित्रत्वाने धनधान्य, ऐश्वर्य व विद्या प्राप्त करावी. ॥ ४ ॥