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अ॒ग्निर्होता॑ पु॒रोहि॑तोऽध्व॒रस्य॒ विच॑र्षणिः। स वे॑द य॒ज्ञमा॑नु॒षक्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir hotā purohito dhvarasya vicarṣaṇiḥ | sa veda yajñam ānuṣak ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। होता॑। पु॒रःऽहि॑तः। अ॒ध्व॒रस्य॑। विऽच॑र्षणिः। सः। वे॒द॒। य॒ज्ञम्। आ॒नु॒षक्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:11» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में अग्न्यादि के दृष्टान्त से विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो मनुष्य (अध्वरस्य) जिसमें हिंसा न हो ऐसे कर्म का (विचर्षणिः) प्रकाशकर्त्ता (होता) दानकारक (पुरोहितः) सब जीवों के हित करनेवाले (अग्निः) अग्नि के सदृश होता है (सः) वह (आनुषक्) अनुकूलता से वर्त्तता हुआ (यज्ञम्) विधि यज्ञादि कर्म को (वेद) जानता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष ब्रह्मचर्य और विद्या आदि उत्तम गुणों के ग्रहण करने में तत्पर होते हैं, वे ही अग्नि आदि पदार्थों को जान कर अर्थात् शिल्पविद्या में निपुण होकर संसार में प्रशंसा होने योग्य कर्मवाले होते हैं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

निरन्तर यज्ञ

पदार्थान्वयभाषाः - [१] वे प्रभु (अग्निः) = अग्रणी हैं | होता सब पदार्थों को देनेवाले हैं। (पुरोहितः) = हमारे सामने [पुर:] आदर्श के रूप रखे हुए हैं [हित:] अर्थात् हमें प्रभु के गुणों को देखकर ही अपने जीवनों का निर्माण करना है। प्रभु दयालु हैं, तो हमें भी दयालु बनना है। प्रभु न्यायकारी हैं, अतः हमें भी न्यायकारी बनना है। प्रभु की तरह ही ज्ञानी व न्यायकारी बनने का प्रयत्न करना है। (अध्वरस्य विचर्षणिः) = वे यज्ञों के विशेषरूप से द्रष्टा हैं- ध्यान करनेवाले हैं। हम यज्ञ करते हैं तो प्रभु उन यज्ञों का रक्षण व पालन करते हैं 'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च' [भुज पालने] । [२] (सः) = वे प्रभु (आनुषक्) = निरन्तर (यज्ञम्) = यज्ञ को (वेद) = जानते हैं। प्रभु का ब्रह्माण्ड का निर्माण, धारण व प्रलयवाला यज्ञ निरन्तर चल रहा है। प्रभु यज्ञरूप ही हैं- यज्ञ ही हैं। इनकी उपासना हम भी यज्ञशील बनकर ही कर सकते हैं 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः' ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु यज्ञरूप हैं। हमें भी यज्ञ करने के लिए सब आवश्यक पदार्थों को देते हैं और हमारे यज्ञों का रक्षण करते हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाऽग्न्यादिदृष्टान्तेन विद्वांसः किं कुर्युरित्याह।

अन्वय:

यो मनुष्योऽध्वरस्य विचर्षणिर्होता पुरोहितोऽग्निरिव भवति स आनुषक् यज्ञं वेद ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्नि) वह्निः (होता) दाता (पुरोहितः) सर्वेषां हितसाधकः (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य यज्ञस्य (विचर्षणिः) प्रकाशकः (सः) (वेद) (यज्ञम्) (आनुषक्) आनुकूल्येन वर्त्तमानः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये ब्रह्मचर्य्यविद्यादि सद्गुणग्रहणानुकूला भवन्ति त एवाऽग्न्यादिपदार्थान् विज्ञाय सृष्टौ प्रशंसितकर्माणः सन्ति ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - One who invokes, lights and raises the fire of yajna, leads the yajna with love for the welfare of all, closely watches the yajna free from violence, jealousy and ill-will, conducts the yajna continuously, and persistently, he knows the secret, mystery and benefits of yajna. He is Agni, brilliant, fiery, and a pioneer.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The duties of the learned persons are mentioned.

अन्वय:

That man knows the Yajna properly and agreeably, who is the illuminator of the non-violent and inviolable sacrifice. He is a liberal donor, benevolent and shining like the fire on account of his virtues.

भावार्थभाषाः - Those persons only are able to know well the properties of the fire and other elements and of admirable acts in the world, who properly observe Brahmacharya (continence) and cultivate Vidya (true knowledge) and other good attributes.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, विद्वान पुरुष यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे हे जाणले पाहिजे.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. जे पुरुष ब्रह्मचर्य व विद्या इत्यादी उत्तम गुणांचे ग्रहण करण्यात तत्पर असतात, तेच अग्नी इत्यादी पदार्थांना जाणून जगात प्रशंसा होण्यासारखे कर्म करतात. ॥ १ ॥