पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र में प्रभुप्राप्ति के लिए नैर्मल्य व ज्ञानदीप्ति को साधन के रूप में कहा था । प्रस्तुत मन्त्र में अन्य अपेक्षणीय बातों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि-हे भारत हम सब का भरण करनेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (वशाभिः) = आत्मसंयम की भावनाओं से-इन्द्रियों के वशीकरणों से-अपने अन्दर प्राप्त कराए जाकर (नः असि) = हमारे होते हो। इन्द्रियों के (आहुत:) = वशीकरण द्वारा हम आपको पानेवाले बनते हैं-आप हमारे हो जाते हैं । २. इसी प्रकार (उक्षभिः) [उक्ष सेचने] = शरीर में उत्पन्न शक्ति के शरीर में ही सेचन द्वारा आप हमारे हृदयों में प्राप्त होकर हमारे हो जाते हैं । ३. (अष्टापदीभिः) = यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि' नामक आठ योगाङ्गरूप आठ चरणों से अपने अन्दर आहुत हुए-हुए आप हमारे हो जाते हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु को पाने के लिए तीनों ही बातें आवश्यक हैं [क] हम इन्द्रियों को वश में करें [ख] उत्पन्न सोमशक्ति को शरीर में ही सिक्त करें [ग] योग के अंगों को अपनाएँ ।
अन्य संदर्भ: सूचना-वशा का अर्थ 'वन्ध्या गौ' भी है, उक्षा का बैल (Ox) तथा सवत्साधेनु का नाम अष्टापदी। इन अर्थों को लेकर यज्ञाग्नि में इनके माँस की आहुति देने का यहाँ विधान कई विद्वानों ने निकाला, अतः मध्यकाल में 'गोमेध' यज्ञ में गौवों की हिंसा करके उनकी आहुति दी जाती रही । वस्तुत: इस प्रकार के अर्थ वेदों के साथ घोर अन्याय के सूचक हैं। जिन वेदों में “गां मा हिंसीरदितिं विराजम्" यजु० १३ | ४३, “मा गामनागामदितिं वधिष्ट" ऋ० ८।१०।१५ आदि कहकर गाय, अश्व, अवि आदि सभी पशुओं की हिंसा का निषेध किया गया हो, उन्हीं वेदों में हिंसा का विधान कैसे हो सकता है ? अतः वेदमन्त्रों का हिंसारहित अर्थ करना ही उचित है, विशेष व्याख्या के लिए ऋषि दयानन्द कृत भाष्य एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका देखें।