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शुचिः॑ पावक॒ वन्द्योऽग्ने॑ बृ॒हद्वि रो॑चसे। त्वं घृ॒तेभि॒राहु॑तः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śuciḥ pāvaka vandyo gne bṛhad vi rocase | tvaṁ ghṛtebhir āhutaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शुचिः॑। पा॒व॒क॒। वन्द्यः॑। अग्ने॑। बृ॒हत्। वि। रो॒च॒से॒। त्वम्। घृ॒तेभिः॑। आऽहु॑तः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:7» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:28» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पावक) पवित्र करनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान ! (घृतेभिः) घी आदि पदार्थों से अग्नि के समान (शुचिः) पवित्र (वन्द्यः) स्तुति के योग्य (आहुतः) आमन्त्रित (त्वम्) आप (बृहत्) बहुत (विरोचसे) प्रकाशमान होते हैं, सो सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे घी आदि पदार्थों से प्रज्वलित किया हुआ पवित्र करनेवाला अग्नि बहुत प्रकाशित होता है, वैसे सत्कार पाया हुआ विद्वान् जन बहुत उपकार करता है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शुचिता व वन्द्यता

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (पावक) = पवित्र करनेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (शुचिः) = पूर्ण पवित्र हैं, (अत एव वन्द्यः) = अभिवादन व स्तुति के योग्य हैं। पवित्रता ही किसी की स्तुति का कारण बनती है। जो जितना-जितना पवित्र होता है, वह उतना ही वन्दनीय व स्तुत्य होता है । हे प्रभो! आप तो (बृहद् विरोचसे) = ख़ूब ही दीप्त हैं। यह ज्ञानदीप्ति ही तो पवित्रता की जननी है। हम भी ज्ञान प्राप्त करेंपवित्र बनें और स्तुत्य जीवनवाले हों। २. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (घृतेभि:) = [घृ क्षरणदीप्त्योः] मलों के क्षरण [=निर्मलता] व ज्ञानदीप्तियों से (आहुत:) = हमारे द्वारा अपने हृदयों में आहुत किये जाते हैं। जैसे घृत बाह्य अग्नि में आहुत होता है, इसी प्रकार नैर्मल्य व ज्ञानदीप्ति से मैं आपको अपने में आहुत करता हूँ । नैर्मल्य व ज्ञानदीप्ति आपकी प्राप्ति के साधन हो जाते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ — जो जितना शुद्ध होता है - वह उतना ही वन्द्य होता है। नैर्मल्य व ज्ञानदीप्ति से हम प्रभु को अपने में धारण करते हैं ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे पावकाऽग्ने घृतेभिः प्रदीप्तोऽग्निरिव शुचिर्वन्द्य आहुतस्त्वं बृहद्विरोचसे स सत्कर्त्तव्योऽसि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शुचिः) पवित्रः (पावकः) पवित्रकर्त्तः (वन्द्यः) स्तोतुमर्हः (अग्ने) अग्निवत्प्रकाशमान विद्वन् (बृहत्) महत् (वि) विशेषे (रोचसे) प्रकाशसे (त्वम्) (घृतेभिः) आज्यादिभिः (आहुतः) आमन्त्रितः ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा घृतादिभिः प्रज्वालितः पवित्रकर्त्ताऽग्निर्बहु रोचते तथा सत्कृतो विद्वान् बहु उपकारं करोति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, pure and brilliant, burning, cleansing and creating, you are the power adorable, refulgent, shining bright, vast and mighty. And among us you are invoked, kindled, raised and fed and raised into flames of light and fire with profuse libations of ghrta in joint yajna.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Scholars are compared with fire.

अन्वय:

O scholar ! you purify all like fire and are bright. As fire inflames with oblations of Ghee etc., likewise you purify the hearts of common men and are therefore are to be admired and highly respected and shining.

भावार्थभाषाः - Here is a simile of fire. The fire generates life extensively when obligations like that of Ghee are poured into it. Likewise the honored scholars are also great benefactors to all.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा घृत इत्यादी पदार्थांनी प्रज्वलित केलेला अग्नी अत्यंत प्रकाशमान असतो, तसे सत्कारित विद्वान अत्यंत उपकारक असतो. ॥ ४ ॥