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यथा॑ वि॒द्वाँ अरं॒ कर॒द्विश्वे॑भ्यो यज॒तेभ्यः॑। अ॒यम॑ग्ने॒ त्वे अपि॒ यं य॒ज्ञं च॑कृ॒मा व॒यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā vidvām̐ araṁ karad viśvebhyo yajatebhyaḥ | ayam agne tve api yaṁ yajñaṁ cakṛmā vayam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यथा॑। वि॒द्वान्। अर॑म्। कर॑त्। विश्वे॑भ्यः। य॒ज॒तेभ्यः॑। अ॒यम्। अ॒ग्ने॒। त्वे इति॑। अपि॑। यम्। य॒ज्ञम्। च॒कृ॒म। व॒यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:5» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:8 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् ! (यथा) जैसे (अयम्) यह (विद्वान्) आप्तजन (विश्वेभ्यः) समस्त (यजतेभ्यः) विद्वानों की सेवा करनेवालों से पाई हुई विद्याओं से (अरम्) दूसरों को परिपूर्ण (करत्) करता है और जैसे (त्वे) तेरे निमित्त (यम्) जिस (यज्ञम्) यज्ञ को (वयम्) हम लोग परिपूर्ण (चकृम) करें वैसे तूं (अपि) भी कर ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे आप्त विद्वान् जन जगत् के लिये सत्योपदेश कर मनुष्यों को सत्य बोधवाले करते हैं, वैसे सब आप्त विद्वानों को निरन्तर अनुष्ठान करना-कराना चाहिये ॥८॥ इस सूक्त में जीव, ईश्वर, विद्वान् और विदुषियों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ यह दूसरे मण्डल में पाँचवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यज्ञ करना और उसका प्रभु के प्रति अर्पण कर देना

पदार्थान्वयभाषाः - १. (यथा) = क्योंकि (विद्वान्) = वह सर्वज्ञ प्रभु (विश्वेभ्यः) = सब (यजतेभ्यः) = पूजा करनेवाले संगतिकरण-वाले व आत्मदान- आत्मसमर्पण करनेवाले लोगों के लिए (अरम् करत्) = ख़ूब ही ज्ञान को करनेवाला होता है और इस ज्ञान से ही मनुष्यों के लिए यज्ञादि के मार्ग को दिखाता है सो हे (अग्ने) = परमात्मन्! (यं यज्ञम्) = जिस यज्ञ को (वयं चकृम) हम करते हैं, (अयम्) = यह यज्ञ (त्वे अपि) = आप में ही अर्पित किया जाता है। आपकी ही प्रेरणा व आपकी ही शक्ति से तो वह यज्ञ चलता है। २. वस्तुतः प्रभु ही ज्ञान व शक्ति को देकर हमें इस योग्य बनाते हैं कि हम यज्ञों को कर सकें, अतः इन यज्ञों को उस प्रभु से ही होता हुआ हमें समझना चाहिए । इन यज्ञों का गर्व न करके हम इन्हें प्रभु के प्रति ही अर्पण करनेवाले बनें । 'यज्ञों को करना और उन्हें प्रभु के प्रति अर्पण कर देना' ही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमारा जीवन यज्ञमय हो और इन यज्ञों को प्रभुकृपा से होता हुआ जानें। सूक्त की मूल भावना यही है कि प्रभु ही होता हैं [१] सब यज्ञादि कर्मों का ज्ञान प्रभु ही देते हैं [२] एवं सब यज्ञ प्रभु से ही हो रहे हैं। इसी प्रभु से अगले सूक्त में प्रार्थना करते हैं कि -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने यथाऽयं विद्वान् विश्वेभ्यो यजतेभ्यो विद्याभिररं करद्यथा त्वे यं यज्ञं वयमरञ्चकृम तथा त्वमपि कुरु ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) येन प्रकारेण (विद्वान्) आप्तो जनः (अरम्) अलम् (करत्) कुर्यात् (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (यजतेभ्यः) विद्वत्सेवकेभ्यः (अयम्) (अग्ने) विद्वन् (त्वे) त्वयि (अपि) (यम्) (यज्ञम्) कर्मोपासनाज्ञानाख्यम् (चकृम) कुर्याम। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (वयम्) ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथाप्ता विद्वांसो जगद्धिताय सत्यमुपदेशं कृत्वा सत्यबोधान् जनान् कुर्वन्ति तथा सर्वैराप्तैर्विद्वद्भिः सततमनुष्ठेयमिति ॥८॥ अत्र जीवेश्वरविद्वद्विदुषीगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति द्वितीयमण्डले पञ्चमं सूक्तं षड्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O lord giver of light and life, Agni, what this man of knowledge and wisdom does holily and gracefully for all the saints and sagely performers of yajna, the same he does for you too in dedication. And so also whatever yajnic acts of life we perform, we dedicate to you.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The theme of learned persons further moves.

अन्वय:

O Agni ( learned persons ) ! the way the other learned person respects and gives company to all other learned persons and acquire good actions, worship and knowledge, we should act the same way.

भावार्थभाषाः - Here is a simile. As the learned persons give noble sermons for the benefit of all, the others should also follow the same way.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे आप्त विद्वान जगासाठी सत्योपदेश करून माणसांना सत्याचा बोध करवितात तसे सर्व आप्त विद्वानांनी निरन्तर अनुष्ठान केले व करविले पाहिजे. ॥ ८ ॥