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सा॒कं हि शुचि॑ना॒ शुचिः॑ प्रशा॒स्ता क्रतु॒नाज॑नि। वि॒द्वाँ अ॑स्य व्र॒ता ध्रु॒वा व॒याइ॒वानु॑ रोहते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sākaṁ hi śucinā śuciḥ praśāstā kratunājani | vidvām̐ asya vratā dhruvā vayā ivānu rohate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सा॒कम्। हि। शुचि॑ना॒। शुचिः॑। प्र॒ऽशा॒स्ता। क्रतु॑ना। अज॑नि। वि॒द्वान्। अ॒स्य॒। व्र॒ता। ध्रु॒वा। व॒याःऽइ॑व। अनु॑। रो॒ह॒ते॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:5» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों के गुणों को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (विद्वान्) विद्वान् जन (शुचिना) पवित्र (क्रतुना) बुद्धि वा कर्म के (साकम्) साथ (शुचिः) शुद्ध (प्रशास्ता) उत्तम शासनकर्त्ता (अजनि) उत्पन्न होता है (हि) वही (अस्य) इस ईश्वर प्रकाशित चारों वेदों के (ध्रुवा) निश्चल अविनाशी (व्रता) सत्याचरणों को स्वीकार कर (वयाइव) विस्तार को प्राप्त शाखाओं के समान (अनु, रोहते) वृद्धि को प्राप्त होता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पवित्र विद्वानों के साथ सङ्ग कर, उत्तम बुद्धि को उत्पन्न करके, अज्ञजनों के उपदेशक हो, वेदविहित कर्मों का आचरण कर आप बढ़ते हैं, वे औरों की उन्नति करनेवाले होते हैं ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शुचिना शुचिः अजनि

पदार्थान्वयभाषाः - १. वे प्रभु (शुचिः) = पूर्ण पवित्र हैं। (प्रशास्ता) = सारे ब्रह्माण्ड के प्रशासक हैं। हृदयस्थरूपेण धर्माधर्म का शासन [=उपदेश] करनेवाले हैं। (शुचिना क्रतुना साकम्) = पवित्र यज्ञ के साथ (अजनि) = प्रादुर्भूत होते हैं। यदि हम अहंकारशून्य होकर यज्ञादि कर्मों में लगे रहें तभी प्रभु का दर्शन कर पाते हैं। ऐसे यज्ञ 'यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्' हमारे जीवनों को पवित्र करते हैं। पवित्र = शुचि बनने पर ही शुचि प्रभु का दर्शन होता है। २. अस्य = इस पवित्र प्रभु के ध्रुवा व्रता = ध्रुव व्रतों को विद्वान् जानता हुआ पुरुष उन व्रतों के अनुसार अपने व्रतों को बनाता हुआ ऊँचा और ऊँचा उठता चलता है, उसी प्रकार इव जैसे कि एक वृक्ष पर वयाः = आरोहण करनेवाला अनुरोहते - निचली शाखा से उपरली शाखा पर चढ़ता चला जाता है । यह पवित्र यज्ञिय जीवनवाला व्यक्ति प्रभु के व्रतों के अनुसार अपने व्रतों को बनाता हुआ इस संसारवृक्ष की सर्वोत्कृष्टशाखा पर पहुँचकर उससे ऊपर उठ ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम पवित्र यज्ञों के द्वारा पवित्र प्रभु का उपासन करें। प्रभु के अनुरूप अपने व्रतों को बनाएँ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

यो विद्वान् शुचिना क्रतुना साकं शुचिः प्रशास्ताजनि स ह्यस्य जगदीश्वरप्रकाशितस्य वेदचतुष्टयस्य ध्रुवा व्रता स्वीकृत्य वया इवानुरोहते ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (साकम्) सह (ही) खलु (शुचिना) पवित्रेण (शुचिः) पवित्रः (प्रशास्ता) प्रशासनकर्त्ता (क्रतुना) प्रज्ञया कर्मणा वा (अजनि) जायते (विद्वान्) (अस्य) (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि (ध्रुवा) ध्रुवाणि निश्चलानि (वयाइव) यथा विस्तीर्णाः शाखाः (अनु) (रोहते) वर्द्धते ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये पवित्रैर्विद्वद्भिः सह सङ्गत्य प्रज्ञां जनयित्वाऽज्ञानानामुपदेशका भूत्वा वेदविहितानि कर्मण्याचर्य्य स्वयं वर्द्धन्ते तेऽन्येषामुन्नतिं कुर्वन्ति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Surely he who, by the grace of the Divine Spirit of universal purity, grows pure, and, by the divine control and universal action of the Spirit of the universe, rises to a state of self-control and right action, he is reborn as the real man of knowledge, and, abiding by the immutable law and discipline of Divinity and nature, grows high and great in life like the branches of a tree (drawing and receiving the spirit and breath of life from the root at the centre of existence).
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The attributes of learned persons.

अन्वय:

The learned persons are pure by their actions and because of their actions and intellect the administration is run on clean and sound lines. With His Divine Vedic knowledge, God accepts the firm actions and makes the people to grow in all directions.

भावार्थभाषाः - The persons who keep company of pure and learned persons and thus make their mind great and follow the dictates contained in the Vedas, they progress themselves and make others also to progress.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पवित्र विद्वानांची संगत धरतात, उत्तम बुद्धी उत्पन्न करून अज्ञानी लोकांचे उपदेशक बनतात व वैदिक कर्मांचे आचरण करून स्वतः विकसित होतात ते इतरांचीही उन्नती करतात. ॥ ४ ॥