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द्यावा॑ नः पृथि॒वी इ॒मं सि॒ध्रम॒द्य दि॑वि॒स्पृश॑म्। य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ यच्छताम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dyāvā naḥ pṛthivī imaṁ sidhram adya divispṛśam | yajñaṁ deveṣu yacchatām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्यावा॑। नः॒। पृ॒थि॒वी इति॑। इ॒मम्। सि॒ध्रम्। अ॒द्य। दि॒वि॒ऽस्पृश॑म्। य॒ज्ञम्। दे॒वेषु॑। य॒च्छ॒ता॒म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:41» मन्त्र:20 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री पुरुषो ! आप (द्यावापृथिवी) सूर्य्य भूमि के समान (अद्य) आज (नः) हमारे (इमम्) इस (सिध्रम्) शास्त्रबोध के प्रकाश के निमित्त (दिविस्पृशम्) विज्ञान प्रकाश में जिससे स्पर्श करते हैं उस (यज्ञम्) पढ़ने-पढ़ाने की सङ्गति स्वरूप यज्ञ को (देवेषु) विद्वानों में (यच्छताम्) स्थापन करो ॥२०॥
भावार्थभाषाः - अध्यापक और उपदेशकों से जैसे सूर्य्य और भूमि सबको सर्वथा उन्नति देते हैं, वैसे स्त्री पुरुषों में विद्या अच्छे प्रकार विस्तारनी चाहिये ॥२०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सफलता व स्वर्गप्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - १. (द्यावापृथिवी) = देदीप्यमान मस्तिष्क तथा विस्तृत शक्तियोंवाला शरीर (नः) = हमारे लिए (इमम्) = इस (यज्ञम्) = यज्ञ को (देवेषु) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के निमित्त (यच्छताम्) = दें– प्राप्त कराएँ । हमारा मस्तिष्क ज्ञानसम्पन्न हो- शरीर शक्तिसम्पन्न हो। इस ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करके हम यज्ञशील बनें। इस यज्ञशीलता से हमारे में दिव्यगुणों का विकास हो । २. यह यज्ञ (सिध्रम्) = हमारी इष्ट कामनाओं का साधक हो । 'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्' । इस लोक में यह यज्ञ हमें सफल बनाए और (अद्य) = आज (दिविस्पृशम्) = [दिव्=स्वर्ग] स्वर्ग के स्पर्श का साधन बने। इस यज्ञ द्वारा हम अपने घर को स्वर्गोपम बना पाएँ। ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य, कुतोऽन्यः कुरुसत्तम' बिना यज्ञ के तो न इस लोक में कल्याण है, न उस लोक में। यज्ञ से ही तो हमारा जीवन कल्याणमय बनता है। जिस घर में गृहवासियों की प्रवृत्ति यज्ञिय होती है - वह घर स्वर्ग सा बन जाता है। -
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ज्ञान व शक्ति प्राप्त करके हम यज्ञशील बनें। यज्ञ से इस लोक की हमारी कामनाएँ पूर्ण होंगी और हम अपने घरों को स्वर्ग बना सकेंगे ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे स्त्रीपुरुषौ भवन्तौ द्यावापृथिवी इवाद्य न इमं सिध्रं दिविस्पृशं यज्ञं देवेषु यच्छताम् ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यावा) सूर्य्यः (नः) अस्माकम् (पृथिवी) भूमिः (इमम्) (सिध्रम्) शास्त्रबोधप्रकाशनिमित्तम् (अद्य) इदानीम् (दिविस्पृशम्) दिवि विज्ञानप्रकाशे स्पृशन्ति येन तम् (यज्ञम्) अध्ययनाध्यापनसङ्गतिमयम् (देवेषु) विद्वत्सु (यच्छताम्) संस्थापयतम् ॥२०॥
भावार्थभाषाः - अध्यापकोपदेशकाभ्यां यथा सूर्य्यभूमी सर्वान् सर्वथोन्नयतस्तथा स्त्रीपुरुषेषु विद्याः सम्यक् प्रसारणीयाः ॥२०॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Heaven and earth, teachers enlightened as the sun and generous as mother earth, let this perfect yajna of ours, this planned yajnic programme of education and enlightenment, which touches the skies and the regions of light now rise high to the divinities and reach the saints and scholars of brilliance across the earth.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The duties of the male and female teachers are stated.

अन्वय:

O men and women! you should establish to-day this Yajna among the enlightened persons permanently. It touches the light of knowledge and then throws light on the meaning of the Shastras, like the sun does on the earth.

भावार्थभाषाः - The teachers and preachers should spread knowledge among all men and women like the sun and earth, which uphold all.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा सूर्य व भूमी सर्वांची संपूर्ण उन्नती करतात. तसे उपदेशक व अध्यापक यांनी स्त्री-पुरुषांमध्ये चांगल्याप्रकारे विद्येचा विस्तार केला पाहिजे. ॥ २० ॥