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त्वे विश्वा॑ सरस्वति श्रि॒तायूं॑षि दे॒व्याम्। शु॒नहो॑त्रेषु मत्स्व प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tve viśvā sarasvati śritāyūṁṣi devyām | śunahotreṣu matsva prajāṁ devi didiḍḍhi naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वे। विश्वा॑। स॒र॒स्व॒ति॒। श्रि॒ता। आयूं॑षि। दे॒व्याम्। शु॒नऽहो॑त्रेषु। म॒त्स्व॒। प्र॒ऽजाम्। दे॒वि॒। दि॒दि॒ड्ढि॒। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:41» मन्त्र:17 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवि) प्रकाशमान (सरस्वति) परमविदुषी स्त्री ! जैसे (विश्वा) समस्त (आयूंषि) आयुर्दा (त्वे) तुझे (देव्याम्) विदुषी में (श्रिता) आश्रित हैं सो तू (शुनहोत्रेषु) पाई है योगज विद्या जिन्होंने उनके बीच (मत्स्व) आनन्द कर (नः) हमारे (प्रजाम्) सन्तानों को (दिदिड्ढि) उपदेश दे ॥१७॥
भावार्थभाषाः - सब विद्वान् जन अपनी-अपनी विदुषी स्त्रियों के प्रति ऐसा उपदेश देवें कि तुमको सबकी कन्यायें पढ़ानी चाहिये और सबकी स्त्री अच्छे प्रकार सिखानी चाहिये ॥१७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

जीवन विकास

पदार्थान्वयभाषाः - १. मानवजीवन का आधार ज्ञान ही है। ज्ञान से ही मानव मानव बनता है- इसके बिना वह पशु के समान ही रह जाता है। इसी बात को मन्त्र में कहते हैं कि (हे सरस्वति) = ज्ञानाधिष्ठात्रि देवि ! (त्वे देव्याम्) = तुझ सर्वव्यवहार साधिका प्रकाशमयी देवी में ही (विश्वा आयूंषि) = सब जीवन (श्रिता) = आश्रित हैं। जीवन की यही तो आधार है। २. हे सरस्वति ! तू (शुनहोत्रेषु) = गतिशील आलस्यरहित तथा दानशील भोगों में अनासक्त पुरुषों में (मत्स्व) = आनन्द का अनुभव कर । ज्ञान वस्तुत: आलस्यशून्य, भोगों में अनासक्त, पुरुषों को ही प्राप्त होता है । ३. हे (देवि) = प्रकाशमयी मातः ! तू (नः) = हमारे लिए (प्रजाम्) = उत्कृष्ट विकास व प्रादुर्भाव को (दिदिड्डि) = देनेवाली हो । ज्ञान से ही वस्तुतः सब शक्तियों का सुन्दर विकास होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- ज्ञान से ही जीवन उत्तम बनता है-इसी से सब शक्तियों का विकास होता है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे देवि सरस्वति यस्यां विश्वाऽयूंषि त्वे देव्यां श्रिता सा त्वं शुनहोत्रेषु मत्स्व नः प्रजां दिदिड्ढि ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वे) त्वयि (विश्वा) सर्वाणि (सरस्वति) परमविदुषि (श्रिता) श्रितानि (आयूंषि) (देव्याम्) विदुष्याम् (शुनहोत्रेषु) प्राप्तयोगजविद्याद्येषु (मत्स्व) आनन्द (प्रजाम्) सन्तानान् (देवि) (दिदिड्ढि) उपदिश। अत्र शपः श्लुः। (नः) अस्माकम् ॥१७॥
भावार्थभाषाः - सर्वे विद्वांसः स्वस्य-स्वस्य विदुषीं स्त्रियं प्रत्येवमुपदिशेयुस्त्वया सर्वेषां कन्या अध्याप्यास्सर्वाः स्त्रियश्च सुशिक्षणीयाः ॥१७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - In you, O generous mother giver of vision and wisdom, lie all the health and age and wealth of knowledge for the world. Come brilliant mother Sarasvati, grace our yajna of education and science, rejoice and create for us a new generation of healthy, educated and refined children.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

More about the lady teachers.

अन्वय:

O highly learned lady teacher ! you are divine in the knowledge, and on it depends the lives of many. Be pleased with those who have acquired the spiritual knowledge through the Yoga (direct perception). Teach our children.

भावार्थभाषाः - All should call their learned wives lovingly and urge upon them to teach girls and women, who are less fortunate.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व विद्वानांनी आपापल्या विदुषी स्त्रियांना असा उपदेश करावा की तुम्ही सर्व कन्यांना शिकवावे. सर्व स्त्रियांनी चांगल्या प्रकारे सुशिक्षित व्हावे. ॥ १७ ॥