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तस्मा॒ इद्विश्वे॑ धुनयन्त॒ सिन्ध॒वोऽच्छि॑द्रा॒ शर्म॑ दधिरे पु॒रूणि॑। दे॒वानां॑ सु॒म्ने सु॒भगः॒ स ए॑धते॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tasmā id viśve dhunayanta sindhavo cchidrā śarma dadhire purūṇi | devānāṁ sumne subhagaḥ sa edhate yaṁ-yaṁ yujaṁ kṛṇute brahmaṇas patiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तस्मै॑। इत्। विश्वे॑। धु॒न॒य॒न्त॒। सिन्ध॑वः। अच्छि॑द्रा। शर्म॑। द॒धि॒रे॒। पु॒रूणि॑। दे॒वाना॑म्। सु॒म्ने। सु॒ऽभगः॑। सः। ए॒ध॒ते॒। यम्ऽय॑म्। युज॑म्। कृ॒णु॒ते। ब्रह्म॑णः। पतिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:25» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कौन मनुष्य कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (ब्रह्मणः) वेदविद्या का (पतिः) रक्षक प्रचार के विद्वान् मनुष्य (देवानाम्) विद्वानों के (सुम्ने) सुख में (सुभगः) सुन्दर ऐश्वर्यवाला प्रफुल्लित होता हुआ (यंयम्) जिस-जिसको (युजम्) शुभ कर्मयुक्त (कृणुते) करता है (सः) (एधते) वह उन्नति को प्राप्त होता (तस्मै,इत्) उसी के लिये (विश्वे) सब (सिन्धवः) समुद्रादि जलाशय (अच्छिद्रा) छेद-भेद रहित (पुरूणि) बहुत (शर्म) सुखदायी निवासस्थानों को (दधिरे) धारण करते तथा (धुनयन्त) सर्वत्र चलाते हैं अर्थात् यानादि द्वारा सर्वत्र निवास पाता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों के सङ्ग में प्रीति रखने पदार्थों का संयोग विभाग करनेवाले रसायन विद्या में उद्योगी होवें, वे सब पदार्थों से बहुत कार्य सिद्ध कर सकते हैं ॥५॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त में कहे अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह पच्चीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

देवताओं के रक्षण में

पदार्थान्वयभाषाः - १. (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (यंयम्) = जिस-जिस को (युजं कृणुते) = साथी बनाता है (तस्मै इत्) = उसके लिए निश्चय से (विश्वे) = [विश्-प्रवेशने] शरीर में ही प्रविष्ट होनेवाले (सिन्धवः) = स्पन्दनशील रेतः कण (धुनयन्त) = रोगकृमियों को कम्पित करके दूर करनेवाले होते हैं और इस प्रकार इसके शरीर को नीरोग बनाते हैं । २. नीरोग बने हुए इन व्यक्तियों के लिए (अच्छिद्रा) = छिद्ररहित-लगातार (पुरूणि) = बहुत अथवा पालन व पूरण करनेवाले शर्म सुख (दधिरे) = धारण किये जाते हैं। इसका जीवन निरन्तर आनन्दमय होता है। ३. (सः) = वह (देवानाम्) = देवताओं के (सुम्ने) = आनन्द में [Happiness] अथवा रक्षण में [protection] (सुभगः) = सौभाग्यवाला होता हुआ (एधते) = वृद्धि को प्राप्त होता है। इसके आनन्द देवताओं के आनन्द होते हैं, न कि राक्षसों के। यह यज्ञादि उत्तम कर्मों में ही आनन्द अनुभव करता है, मांस शराब आदि के सेवन में नहीं। देवताओं के रक्षण प्राप्त करके यह अपने सौभाग्य को निरन्तर बढ़ानेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का मित्र [क] वीर्यकणों के रक्षण से नीरोग शरीरवाला होता है [ख] इसका आनन्द अच्छिद्र होता है [ग] देवों के रक्षण में इसका सौभाग्य बढ़ता चलता है। सम्पूर्ण सूक्त प्रभु के मित्र के लक्षणों का वर्णन करता है। प्रभु का मित्र [१] प्रभु को हृदय में दीप्त करता हुआ कामादि शत्रुओं का हिंसन करता है [२] ज्ञान-ध्यान व यज्ञोंवाला होता हुआ निरन्तर बढ़ता है [३] पुत्रों-पौत्रों व प्रपौत्रों को भी देखनेवाला दीर्घजीवी होता है [४] वीरसन्तानों के साथ प्रबल शत्रुओं को भी जीतता है [५] ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानैश्वर्य को बढ़ाता है, अन्तः स्थित आत्मा से प्रकाश प्राप्त करता है [६] इसके पुत्र-पौत्र भी उन्नतिपथ पर चलनेवाले होते हैं [७] यह ओजस्विता से शत्रुओं को सब ओर से समाप्त करता है [८] अग्निज्वाला के समान शत्रुओं से रोका नहीं जा सकता [९] अनिरुद्ध ज्ञानधाराएँ इसे प्राप्त होती हैं [१०] सात्त्विकभावों में प्रथम होता हुआ ज्ञान वाणियों को प्राप्त होता है । [११] अबाधित बलवाला होता है [१२] इसके शरीर में व्याप्त वीर्यकण इसे नीरोग बनाते हैं [१३] निरन्तर आनन्द धारण करता है [१४] देवों के रक्षण में सदा बढ़ता चलता है। अगला सूक्त भी इसी का चित्रण करता है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ के मनुष्याः कार्याणि साध्नुवन्तीत्याह।

अन्वय:

यो ब्रह्मणस्पतिर्देवानां सुम्ने सुभगः सन् यंयं युजं कृणुते स एधते तस्मा इद्विश्वे सिन्धवोऽच्छिद्रा पुरूणि शर्म दधिरे धुनयन्त ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तस्मै) (इत्) एव (विश्वे) सर्वे (धुनयन्त) धुनयन्ति कम्पयन्ति। अत्राडभावः (सिन्धवः) समुद्रादयः (अच्छिद्रा) छिद्ररहितानि (शर्म) शर्माणि गृहाणि (दधिरे) दधति (पुरूणि) बहूनि (देवानाम्) (सुम्ने) सुखे (सुभगः) शोभनैश्वर्य्यः (सः) (एधते) (यंयम्) (युजम्) (कृणुते) (ब्रह्मणः) (पतिः) ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्वत्सङ्गप्रियाः पदार्थसम्भोगविभागकारिणो रसायनविद्यायुक्ताः स्युस्ते सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो बहूनि कार्य्याणि साधयितुं शक्नुवन्तीति ॥५॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति पञ्चविंशतितमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For him the oceans roll, for him the rivers flow, boundless, incessant and universal across the world, bearing grace divine, cosmic energy and infinite joy of the heart. And he, happy and blest with fortune, grows on and on in peace and favour of the divinities of nature and humanity. Such is the man whom Brahmanaspati chooses for a friend and instrument for fulfilment and the divine purpose.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The criterion of successful persons is indicated.

अन्वय:

The person who is well-versed in the Vedic learnings and is the protector and propagator of the same, such a man always joins other learned persons in their festivities and becomes exuberant at their prosperity. Verily, he progresses and marches forward. All the oceans and water reservoirs, and the luxuriant abodes are at his disposal, and he is capable to reach every place easily and quickly with his conveyances.

भावार्थभाषाः - The person who maintains his relation and keeps his company with such scientists who are good at the knowledge of chemical properties, such persons can accomplish big tasks.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वानांबरोबर प्रीती करतात, पदार्थांचा संयोग-वियोग करणाऱ्या रसायनविद्येत प्रवृत्त करतात ती अनेक पदार्थांद्वारे पुष्कळ कार्य सिद्ध करू शकतात. ॥ ५ ॥