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मा नः॑ स्ते॒नेभ्यो॒ ये अ॒भि द्रु॒हस्प॒दे नि॑रा॒मिणो॑ रि॒पवोऽन्ने॑षु जागृ॒धुः। आ दे॒वाना॒मोह॑ते॒ वि व्रयो॑ हृ॒दि बृह॑स्पते॒ न प॒रः साम्नो॑ विदुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā naḥ stenebhyo ye abhi druhas pade nirāmiṇo ripavo nneṣu jāgṛdhuḥ | ā devānām ohate vi vrayo hṛdi bṛhaspate na paraḥ sāmno viduḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। नः॒। स्ते॒नेभ्यः॑। ये। अ॒भि। द्रु॒हः। प॒दे। नि॒रा॒मिणः॑। रि॒पवः॑। अन्ने॑षु। ज॒गृ॒धुः। आ। दे॒वाना॑म्। ओह॑ते। वि। व्रयः॑। हृ॒दि। बृह॑स्पते। न। प॒रः। साम्नः॑। वि॒दुः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:23» मन्त्र:16 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:32» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहस्पते) चोर आदि के निवारनेवाले (ये) जो (अभिद्रुहः) सब ओर से द्रोह करनेवाले (रिपवः) शत्रु जन (पदे) पाने योग्य स्थान में (निरामिणः) नित्य रमण करनेवाले (अन्नेषु) अन्नादि पदार्थों के निमित्त (जागृधुः) सब ओर से कांक्षा करें उन (स्तेनेभ्यः) चोरों से (नः) हमको भय (मा) न हो। जो (व्रयः) वर्जने योग्य जन (देवानाम्) विद्वानों के बीच (आ,ओहते) वितर्कयुक्त के लिये (हृदि) मन में (साम्नः) सन्धि से (विविदुः) जानें उनको (परः) अत्यन्त श्रेष्ठ तू (न) न प्राप्त हो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जो चोर द्रोह से पराये पदार्थों की चाहना करते हैं, वे कुछ भी धर्म नहीं जानते हैं ॥१६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अदेवों से दूर

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! जो (साम्नः) = शान्ति से (परः) = कुछ भी उत्कृष्ट है ऐसा (न विदुः) = नहीं जानते, अर्थात् जो शान्ति को ही सर्वोपरि मानते हैं, उन (नः) = हमें (स्तेनेभ्यः मा) = चोरों के लिए मत दे डालिए, अर्थात् हम चोरों से अभिभूत न हो जाएँ। ये जो लोग द्रुहस्पदेद्रोह के स्थान में (निरामिणः) = नितरां रमण करनेवाले हैं, उनके लिए मत दे डालिए । जो (रिपवः) = औरों का विदारण करनेवाले शत्रुभूत पुरुष (अन्नेषु) = औरों के अन्नों में (जागृधुः) = लालचवाले होते हैं, उनके लिए हमें मत दे डालिए। २. हमें उनके लिए भी मत दे डालिए जो कि हृदि हृदय में (देवानाम्) = दिव्यवृत्तियों के विव्रयः वर्जन को (ओहते) = धारण करते हैं, अर्थात् जो हृदय में शुभभावों को न धारण करके सदा अशुभभावों को ही स्थान देते हैं, हम उनसे अभिभूत न हो जाएँ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम चोरों 'द्रोहवृत्तिवालों' लोभियों तथा अदिव्य भावनाओंवालों से दूर रहते हुए शान्तजीवन बिता सकें।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे बृहस्पते येऽभिद्रुहो रिपवो पदे निरामिणोऽन्नेषु जागृधुस्तेभ्य: स्तेनेभ्यो नोऽस्माकं भयं मास्तु। ये व्रयो देवानामोहते हृदि साम्नो विविदुस्तान् परस्त्वं न प्राप्नुयाः ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) (नः) अस्माकम् (स्तेनेभ्यः) चोरेभ्यः (ये) (अभि) (द्रुहः) दोग्धारः (पदे) प्राप्तव्ये (निरामिणः) नित्यं रन्तुं शीलाः (रिपवः) शत्रवः (अन्नेषु) (जागृधुः) अभिकाङ्क्षेयुः (आ) (देवानाम्) विदुषाम् (ओहते) वितर्कयुक्ताय (वि) (व्रयः) वर्जनीयाः। अयं बहुलमेतन्निदर्शनमिति व्रीधातुर्ग्राह्यः (हृदि) (बृहस्पते) चोरादिनिवारक (न) (परः) (साम्नः) सन्धेः (विदुः) जानीयुः ॥१६॥
भावार्थभाषाः - ये स्तेना द्रोहेण परपदार्थानिच्छन्ति ते किमपि धर्मन्न जानन्ति ॥१६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Save us, lord of the great world, right and universal law, from the thieves and enemies who hate all and delight in positions of power, who covet nothing but food and luxury, who hold nothing in their heart but disdainful superiority complex toward the learned, wise and virtuous and who know nothing of value beyond money and property.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

More light thrown on the duties of the learned persons.

अन्वय:

O learned person (administrator) ! let us have no fear from the thieves, rebels, enemies and those who are always out to take away food grains etc. held by others. You should not be available to the condemnables and those who harass the learned persons with their wild arguments and are always of two minds.

भावार्थभाषाः - Those who desire to steal away others' wealth, they are not aware of the true religion.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे चोर असून द्वेषाने दुसऱ्यांच्या पदार्थांची कामना करतात ते किंचितही धर्म जाणत नाहीत. ॥ १६ ॥