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अ॒स्मिन्त्स॑मु॒द्रे अध्युत्त॑रस्मि॒न्नापो॑ दे॒वेभि॒र्निवृ॑ता अतिष्ठन् । ता अ॑द्रवन्नार्ष्टिषे॒णेन॑ सृ॒ष्टा दे॒वापि॑ना॒ प्रेषि॑ता मृ॒क्षिणी॑षु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmin samudre adhy uttarasminn āpo devebhir nivṛtā atiṣṭhan | tā adravann ārṣṭiṣeṇena sṛṣṭā devāpinā preṣitā mṛkṣiṇīṣu ||

पद पाठ

अ॒स्मिन् । स॒मु॒द्रे । अधि॑ । उत्ऽत॑रस्मिन् । आपः॑ । दे॒वेभिः॑ । निऽवृ॑ताः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् । ताः । अ॒द्र॒व॒न् । आ॒ऋष्टि॒षे॒णेन॑ । सृ॒ष्टाः । दे॒वऽआ॑पिना । प्रऽइ॑षिताः । मृ॒क्षिणी॑षु ॥ १०.९८.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:98» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मिन्) इस (उत्तरस्मिन्) ऊपरवाले (समुद्रे-अधि) अन्तरिक्षस्थ समुद्र में (देवेभिः) मरुत् आदि देवों द्वारा (निवृताः) रोके हुए (आपः) जल (अतिष्ठन्) ठहरे हैं-ठहरते हैं (ताः) वे (अद्रवन्) नीचे बह चलते हैं-बरस जाते हैं (आर्ष्टिषेणेन) पूर्वोक्त ऋष्टिषेणसम्बन्धी (देवापिना) पुरोहित या विद्युदग्नि के द्वारा (सृष्टाः) छोड़े हुए, तथा (मृक्षिणीषु) सेचनयोग्य भूमियों स्थलियों में प्रेरित किये गये हैं-किये जाते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - आकाश के जल समुद्र में-मेघ में जल रुके होते हैं, उन्हें पुरोहित यज्ञविधि से नीचे भूभागों पर बरसा लिया करता है-बरसा लिया करे एवं विद्युत् अग्नि मेघ में रुके हुए जलों को ताड़ना द्वारा नीचे भूमियों पर बरसा दिया करती है, इस विज्ञान को जानना चाहिये और काम में लाना चाहिए ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञान व दिव्यगुणों के पुञ्च प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अस्मिन्) = इस उत्तर (स्मिन् समुद्रे अधि) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञान समुद्र प्रभु में (देवेभिः) = सब दिव्यगुणों से (निवृता:) = निरुद्ध [ surrounded enelased] (आप:) = ज्ञानजल अतिष्ठन् स्थित हैं। प्रभु ज्ञान के पुञ्ज तो हैं ही, साथ ही वे दिव्यगुणों के आधार हैं। [२] (ता:) = वे ज्ञानजल आर्ष्टिषेणेन-' इन्द्रियों, मन व बुद्धि' के द्वारा वासनाओं का संहार करनेवाले से (सृष्टा:) = उत्पन्न किये हुए (अद्रवन्) = गतिवाले होते हैं, अर्थात् इसे खूब क्रियाशील बनाते हैं। ये ज्ञानजल (देवापिना) = देव हैं मित्र जिसके उस देवापि से (मृक्षिणीषु) = [मज् शुद्धौ] परिशुद्ध हृदय - स्थलियों में (प्रेषिता:) = प्रेषित [= प्रेरित] होते हैं । देवापि योगांगों के अनुष्ठान से अशुद्धि का क्षय करके अपने हृदय को दीप्त करता है । इस दीप्त हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है। यही उत्कृष्ट ज्ञान-समुद्र से ज्ञानजलों का प्रवाह कहलाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु ज्ञान व दिव्यगुणों के पुञ्ज हैं। देवापि अपने हृदय को पवित्र बनाकर इन ज्ञानजलों को अपनी ओर प्रवाहित करता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मिन्-उत्तरस्मिन्-समुद्रे-अधि) एतस्मिन् उपरिसमुद्रेऽन्तरिक्षे-ऽधि (देवेभिः-निवृताः-आपः-अतिष्ठन्) मरुदादिभिर्देवैर्निरुद्धा आपस्तिष्ठन्ति (ताः-अद्रवन्) ता द्रुताश्चलिताः (आर्ष्टिषेणेन देवापिना सृष्टाः) पूर्वोक्तेन पुरोहितेन विद्युदग्निना वा मोचिताः-तथा (मृक्षिणीषु प्रेषिताः) सेचनीयासु “मृक्ष सेचने” [ऋ० ४।३०।१३ दयानन्दः] नीचैर्गतासु “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघ० २।१५] स्थलीषु प्रेरिताः ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - In this upper oceanic sky water vapours stay held up by divine forces of nature. Catalised by electric charge caused by divine marut energies, they condense, and, sent down into clouds, they shower, upon the earth in torrents.