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आ दे॒वो दू॒तो अ॑जि॒रश्चि॑कि॒त्वान्त्वद्दे॑वापे अ॒भि माम॑गच्छत् । प्र॒ती॒ची॒नः प्रति॒ मामा व॑वृत्स्व॒ दधा॑मि ते द्यु॒मतीं॒ वाच॑मा॒सन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā devo dūto ajiraś cikitvān tvad devāpe abhi mām agacchat | pratīcīnaḥ prati mām ā vavṛtsva dadhāmi te dyumatīṁ vācam āsan ||

पद पाठ

आ । दे॒वः । दू॒तः । अ॒जि॒रः । चि॒कि॒त्वान् । त्वत् । दे॒व॒ऽआ॒पे॒ । अ॒भि । माम् । अ॒ग॒च्छ॒त् । प्र॒ती॒ची॒नः । प्रति॑ । माम् । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । दधा॑मि । ते॒ । द्यु॒ऽमती॑म् । वाच॑म् । आ॒सन् ॥ १०.९८.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:98» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पते) हे वेदवाणी के स्वामी परमात्मन् ! या गर्जनारूप वाणी के स्वामी स्तनयित्नु (मे) मेरे लिए (देवतां प्रति-इहि) देवताओं का प्रतिरूप हो-बन (मित्रः-वा) तू मित्र-प्रेरक-सञ्चालक या (वरुणः-वा) वरनेवाला-रक्षक या (पूषा-असि) पोषक तू है (आदित्यैः-वा) तू रश्मियों से या आदानगुणों से (वसुभिः-वा) बसानेवाले गुणों से (मरुत्वान्-सः) मरुतों से वायुस्तरों से युक्त होता हुआ, इस प्रकार सब देवताओं के गुणों से युक्त है (शन्तनवे) शन्तनु-शम् इस देह के लिए हो, इस प्रकार आकाङ्क्षावाले-अन्न और अर्थ के अधिकारी के लिए (पर्जन्यं वृषाय) मेघ को बरसा (देवापिः) हे देवों की आप्ति से-प्राप्त करने की चेष्टा से वर्त्तमान पुरोहित या आकाशीय विद्युत् (त्वत्) तुझसे (दूतः) प्रेरित हुआ (अजिरः) गतिशील-प्रेरणावाला (देवः-चिकित्वान्) प्रेरक देव या प्रेरक वायु (माम्-अभि) मेरे प्रति (अगच्छत्) प्राप्त होता है (प्रतीचीनः-मां प्रति) साक्षात् मेरी ओर (आ-ववृत्स्व) भलीभाँति प्राप्त हो (ते-आसन्) तेरे मुख में (द्युमतीं-वाचम्) दीप्तियुक्त वाणी को-वेदवाणी को सुखवृष्टि करनेवाली को या गर्जना वाणी को-वर्षा करनेवाली को (दधामि) धारण-कराता हूँ ॥१-२॥
भावार्थभाषाः - वेदवाणी का स्वामी परमात्मा समस्त देवों का प्रतिरूपक होकर देह के सुख की कामना करनेवाले-प्राणिमात्र के सुख की कामना करनेवाले के लिए सुख की वृष्टि करता है। समस्त देवों को प्राप्त करनेवाला विद्वान् परमात्मा की वेदवाणी को प्राप्त करता है सुख की वृष्टि कराने के लिए एवं मेघ में वर्त्तमान गर्जना का स्वामी समस्त देवताओं के गुणों को लेकर पृथिवी की अन्नोत्पादक ऊष्मा शक्ति के लिए जल को बरसाने के हेतु आकाशीय विद्युत् रूपवाली-मेघ को ताड़ित करनेवाली को देता है और जल बरसाता है ॥१-२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु की ओर

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार 'मरुत्वान्' बनने पर हमारा जीवन बड़ा उत्तम बनता है। प्रभु कहते हैं कि हे (देवापे) = देवों को अपना मित्र बनानेवाले देवापि ! तू (देवः) = [दिव् क्रीडा] संसार के सब व्यवहारों को क्रीड़क की मनोवृत्ति से करनेवाला बना है। (दूतः) = तूने अपने को तपस्या की अग्नि में संतप्त किया है। (अजिर:) = [agile] बड़े क्रियाशील जीवनवाला तू हुआ है। (चिकित्वान्) = ज्ञानी बना है । अब (त्वद्) = तेरे से (मां अभि) = मेरी ओर (आ अगच्छत्) = सर्वथा स्तुतिवचन प्राप्त होनेवाले हों, अर्थात् तू निरन्तर प्रभु का स्तवन करनेवाला बन । तू अपनी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि को मेरे में लगानेवाला बन, विषय-प्रवण न होकर तू आत्म-प्रवण हो । [२] (प्रतीचीनः) = इस प्रकार इन्द्रियों को प्रत्याहृत करनेवाला [प्रति अञ्च् = प्रति आहर] (मां प्रति) = मेरी ओर (आववृत्स्व) = आनेवाला हो । [३] जब हम प्रभु की ओर चलते हैं तो प्रभु कहते हैं कि मैं (ते आसन्) = तेरे मुख में (द्युमती) = ज्योतिर्मयी (वाचम्) = वाणी को दधामि धारण करता हूँ । हम इन्द्रियों को प्रत्याहृत करके प्रभु की ओर चलते हैं और जितना जितना हम प्रभु के समीप होते हैं उतना उतना प्रभु के ज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम प्रभु की ओर चलते हैं, प्रभु हमें ज्ञान देते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - एतद्वर्षकामसूक्तम्” [निरु० २।११] इति वृष्टिविज्ञानविषयकं सूक्तम् अत्र वक्तव्यम्−अस्मिन् शन्तनवे शब्दे “शन्तनुः देवापि” इति द्वयोराश्रये सूक्तार्थो विद्यते। तौ द्वौ देवापिशन्तनू वृष्टिविज्ञाने खल्वाकाशपृथिव्योर्विद्युद् भौमोष्माणौ वृष्टेर्निमित्तीभूतौ स्तः। आकाशाद् विद्युद् वृष्टिं प्रेरयेत् तदैवौषधिवनस्पतयो जायेरन् तथा च पृथिवीतो भौमोष्मा खल्वोषधिवनस्पतीनां सूक्ष्मं सारभागमुपादायाकाशं प्रत्युद्गमयेत् तदा वृष्टेरागमनं भवेत्, एवं विद्युदूष्माणौ वैदिकनामतो देवापिशन्तनू स्तः। अगस्त्य-संहितानामकस्य पुरातनवैज्ञानिकग्रन्थस्य परिभाषायां मित्रावरुणौ वृष्टेर्निमित्तीभूतौ स्तः “मित्रावरुणौ त्वा वृष्ट्यावताम्” [श० १।८।३।१२] महर्षिभरद्वाजनिर्मितस्य वैमानिकप्रकरणस्य परिभाषायां “द्रवः-द्रवणम् प्राणनम्” चेत्याख्ये जलस्य द्वे शक्ती स्तः। अद्यतने पाश्चात्त्ये विज्ञाने “हाईड्रोजन-आक्सीजन” इति नामतः प्रसिद्धीकृतौ द्वौ वायू स्तः। ययोर्मेलनात् खलु जलं सम्पद्यते एवं वृष्टिविज्ञानं पृथिवीस्थः शन्तनुर्भौमोष्मा वरुणः प्राणनम् “आक्सीजन” इत्येते कार्यकारणभावप्राप्ताः ‘पश्चिमपश्चिमः पूर्वपूर्वस्य कार्यम्’ ‘पूर्वपूर्वः पश्चिमपश्चिमस्य कारणम्’ तत्रैवाकाशस्थो देवापिरभ्रदलान्तर्गतं विद्युत्तत्त्वम् ‘मित्रः-द्रवः’ हाइड्रोजनतत्त्वम् कार्यकारणभावप्राप्ताः “पूर्वपूर्वः पश्चिम-पश्चिमस्य कारणं पश्चिमपश्चिमः पूर्वपूर्वस्य-कार्यम्” आधिभौतिकदृष्ट्या तयोस्तात्पर्यार्थो ग्राह्यः, यत् खलु राष्ट्रस्य शस्त्रास्त्रबलसम्पन्नः शन्तनुरन्नवान् गणः। तद्राष्ट्रस्य विद्यावान् गणो देवापिः। ताभ्यां राष्ट्रे धान्यसिद्ध्या ज्ञानवृद्ध्या सुखवृष्टिर्भवति। अथार्थः क्रियते द्वयोर्मन्त्रयोः−(बृहस्पते) बृहत्या वेदवाचः स्वामिन् परमात्मन् ! गर्जनारूपवाचः स्वामिन् स्तनयित्नो “ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः” [अथर्व० ३।२७।६] (मे) मह्यं (देवतां प्रति-इहि) देवताम्प्रतिरूपो भव (मित्रः-वा वरुणः-वा पूषा-असि) त्वं मित्रः प्रेरयिता सञ्चालको वरुणो वरयिता रक्षकः पूषा पोषयिता वा त्वमेवासि (आदित्यैः-वा वसुभिः-मरुत्वान्-सः) त्वमादित्यै रश्मिभिः-आदानगुणैः, वसुभिर्वासकगुणैः मरुद्भिर्युक्तः सन् ता सर्वदेवता-गुणवान्-असि तथा भूतः सन् (शन्तनवे पर्जन्यं वृषाय) शमस्मै तन्वे-अस्तु-इत्याकाङ्क्षिणे राष्ट्रेऽन्नार्थाधिकारिणे मेघं वर्षय। “छन्दसि शायजपि” [अष्टा० ३।१।८४] (देवापे) हे देवानामाप्त्या प्राप्तुं चेष्टया वर्तमान ! पुरोहित ! आकाशीय विद्युदग्ने ! वा (त्वत्-दूतः-अजिरः-देवः-चिकित्वान्) त्वत्तः तव सकाशात् त्वया प्रेरितो दूतो गतिशीलः प्रेरणावान् प्रेरयिता देवो विद्वान् वायुर्वा (माम्-अभि-अगच्छत्) मां प्रत्यागच्छत् (प्रतीचीनः-माम्-प्रति-आ ववृत्स्व) साक्षात् त्वं मां प्रति समन्तात् प्राप्तो भव (ते-आसन्-द्युमतीं वाचं दधामि) तव मुखे दीप्तियुक्तां वाचं वेदवाचं सुख-वृष्टिकरीं यद्वा गर्जनां वृष्टिकरीं दधामि ॥१-२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the divine messenger, fast and brilliant, harbinger of collected light of knowledge come to me. Brhaspati, come to me constantly and continuously in circuitous series. I receive your illuminant Word into my mind and speech.