रोगों को पादाक्रान्त करना
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (ओषधे) = सोमलते ! (त्वं उत्तमा असि) = तू ओषधियों में सर्वोत्तम है, (वृक्षाः) = अन्य सब वनस्पतियाँ (तव) = मेरी (उपस्तय:) = [ attendamts, followors] अनुगामिनी हैं, सायण के शब्दों में अधःशायी हैं । तू मुख्य है, अन्य सब तेरे से नीचे हैं । [२] तेरे समुचित प्रयोग का हमारे जीवनों पर यह परिणाम हो कि (यः) = जो (अस्मान्) = हमें (अभिदासति) = अपने अधीन करना चाहता है, (सः) = वह (अस्माकम्) = हमारे (उपस्तिः) = अध: शायी (अस्तु) हो । जो रोग हमारे पर प्रबल होना चाहता है, वह हमारे से पादाक्रान्त किया जा सके ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम सब ओषधियों में उत्तम है, सब ओषधियाँ उसके नीचे हैं। इसके प्रयोग से हम रोगों को नीचे कर सकें। यह सूक्त ओषधि वनस्पतियों को समुचित प्रयोग से पूर्ण स्वस्थ बनने का उपदेश कर रहा है। इन ओषधियों का उत्पादन पर्जन्य से वृष्टि होकर ही होता है 'पर्जन्यादन्न संभवः' । सो अगले सूक्त में वृष्टि की कामना की गई है। यह 'वृष्टिकाम' देवापि है, दिव्य गुणों के साथ मित्रता को करनेवाला है ‘देवाः आपयो यस्य'। यह वासनारूप शत्रुओं पर आक्रमण करने के लिए शिव संकल्पों के सैन्य को प्रेरित करता है सो 'आर्ष्टिषेण' कहलाता है [ऋष् गतौ]। इस 'आष्र्ष्टिषेण देवापि' को प्रभु निर्देश करते हैं कि-