पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यद्) = जो (वाजयन्) = [रुग्णं बलिनं कुर्वन् सा० ] रोगी के अन्दर शक्ति का संचार करता हुआ मैं (इमा:) = इन (ओषधी:) = ओषधियों को (हस्ते) = हाथ में (आदधे) = धारण करता हूँ, तो (यक्ष्मस्य) = रोग का (आत्मा) = आत्मा (नश्यति) = नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार नष्ट हो जाता है (यथा) = जैसे (जीवगृभ:) = [जीवानां ग्राहकात्] व्याध के (पुरा) = सामने जीव नष्ट हो जाता है। [२] वस्तुतः ज्ञानी वैद्य ओषधि को हाथ में लेता है, त्यूँ ही रोगी का आधा रोग भाग जाता है, रोग की आत्मा चली जाती है, रोग मर - सा जाता है। [३] रोगी को ठीक करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी शक्ति को कायम रखा जाए। शक्ति गयी, तो ठीक होने का प्रश्न ही नहीं रहता ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ज्ञानी वैद्य के हाथ में ओषधि लेते ही रोग मृत-सा हो जाता है । यह वैद्य रोगी के अन्दर वाज [बल] का संचार करके उसे जीवित कर देता है।