पदार्थान्वयभाषाः - [१] (तुरस्पेये) = [ तूर्णं पातव्ये] शीघ्रता से अन्दर ही पीने के योग्य इस सोम के पीने पर (यः) = जो यह (हरिपाः) = [प्राणो वै हरिः कौ० १७ । १] प्राणशक्ति का रक्षण करनेवाला पुरुष है, वह (हरिश्मशारु:) = [श्मनि श्रितम् ] सब मलों का हरण करनेवाली इन्द्रियों, मन व बुद्धिवाला होता है। इसकी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सब निर्मल होती हैं । (हरिकेशः) = यह दीप्त ज्ञान की रश्मियोंवाला होता है। (आयसः) = शरीर में लोहवत् दृढ़ होता है । [२] (यः) = जो (अर्वद्भिः) = सब विघ्नों के समाप्त करके आगे बढ़नेवाले (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों से (वाजिनीवसु:) = [food] अन्नरूप धनवाला होता है, निवास के लिए आवश्यक अन्न का ही प्रयोग करता है यह व्यक्ति अपने इन हरी ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को (विश्वादुरिता) = सब दुरितों के (अतिपारिषत्) = पार ले जानेवाला होता है। इसकी इन्द्रियाँ दुरितों से दूर होकर सुवितों को ही अपनानेवाली होती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- इन्द्रियों से निवास के लिए आवश्यक अन्नों का ही ग्रहण करें, तो दुरितों से दूर होकर, हम सोम का पान करनेवाले होंगे और 'हरिश्मशारु, हरिकेश व आयस' बनेंगे।