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ता व॒ज्रिणं॑ म॒न्दिनं॒ स्तोम्यं॒ मद॒ इन्द्रं॒ रथे॑ वहतो हर्य॒ता हरी॑ । पु॒रूण्य॑स्मै॒ सव॑नानि॒ हर्य॑त॒ इन्द्रा॑य॒ सोमा॒ हर॑यो दधन्विरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā vajriṇam mandinaṁ stomyam mada indraṁ rathe vahato haryatā harī | purūṇy asmai savanāni haryata indrāya somā harayo dadhanvire ||

पद पाठ

ता । व॒ज्रिण॑म् । म॒न्दिनम् । स्तोम्य॑म् । मदे॑ । इन्द्र॑म् । रथे॑ । व॒ह॒तः॒ । ह॒र्य॒ता । हरी॒ इति॑ । पु॒रूणि॑ । अ॒स्मै॒ । सव॑नानि । हर्य॑ते । इन्द्रा॑य । सोमाः॑ । हर॑यः । द॒ध॒न्वि॒रे॒ ॥ १०.९६.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:96» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणम्) ओजस्वी (मन्दिनम्) आनन्द देनेवाले (स्तोम्यम्) स्तुतियोग्य (इन्द्रम्) परमात्मा को (ता हर्यता हरी) वे दोनों कामना करनेवाले ज्ञानाहरणशील सुनाने और सुननेवाले (मदे रथे) हर्षस्थान रमणगृह-मन में (वहतः) प्राप्त करते हैं (अस्मै हर्यते) इस कमनीय (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये (पुरूणि) बहुत (सवनानि) स्तोतव्य स्थान हैं (सोमाः) सौम्य स्वभाववाले मनुष्य (दधन्विरे) उस परमेश्वर को अपने अन्दर धारण करते हैं-उसका ध्यान करते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा आनन्द के देनेवाला स्तुति योग्य है, उसका श्रवण करने करानेवाले अपने मन में उसे धारण करते हैं, पुनः मनन करके साक्षात् करते हैं ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यज्ञशीलता व सोमधारण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ता) = वे प्रभु से दिये गये (हर्यता) = गतिशील (हरी) = इन्द्रियाश्व (मदे) = आनन्द प्राप्ति के निमित्त (रथे:) = इस शरीर - रथ में (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (वहतः) = धारण कराते हैं, जो (वज्रिणम्) = क्रियाशीलतारूप वज्रवाले हैं (मन्दिने) = आनन्दमय हैं तथा (स्तोभ्यम्) = स्तुति के योग्य हैं। वस्तुत: जब हमारी कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ हमें प्रभु की ओर ले चलती हैं तो हमारा जीवन क्रियामय बनता है, हमें आनन्द व हर्ष की प्राप्ति होती है और हम स्तुत्व जीवनवाले होते हैं । [२] (अस्मै) = इस (हर्यते) = कान्त व गतिशील (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए (पुरूणि सवनाति) = पालनात्मक व पूरणात्मक यज्ञ होते हैं । यज्ञों के द्वारा ही प्रभु का उपासन होता है, ये यज्ञ ही हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाले हैं । [३] इस (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए ही (हरयः) = सब रोगों का हरण करनेवाले (सोमाः) = सोमकण (दधन्विरे) = धारण किये जाते हैं। इन सोमकणों के धारण से ही हमारी ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम यज्ञशील हों और सोमकणों का शरीर में ही रक्षण करें ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणं मन्दिनं स्तोम्यम्-इन्द्रम्) ओजस्विनं मन्दयितारमा-नन्दयितारं स्तोतव्यमैश्वर्यवन्तं परमेश्वरं (ता हर्यता हरी मदे रथे वहतः) तौ कामयमानौ हरणशीलौ श्रावयितृश्रोतारौ “हरी हरणशीलावध्यापकाध्येतारौ” [यजु० ३३।७८ दयानन्दः] हर्षसमये रमणगृहे मनसि प्रापयतः (अस्मै हर्यते-इन्द्राय पुरूणि सवनानि) एतस्मै कमनीयाय परमेश्वराय बहूनि स्तोतव्यस्थानानि सन्ति (सोमाः-दधन्विरे) यत्र सोम्यस्वभावा मनुष्यास्तं परमेश्वरं दधति ध्यायन्ति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Those adorable carriers, centrifugal and centripetal forces of divine nature, bear and sustain the power and presence of the thunder armed, joyous, adorable Indra in the divine blissful chariot as the universe of existence. For this Indra, blissful lord, many yajna sessions, soma oblations and beautiful gifts of homage are prepared and offered.