पदार्थान्वयभाषाः - [१] (दिवि केतुः न) = द्युलोक में सूर्य की किरणों के समान [केतु = a ray of light] (दिवि) = इस उपासक के मस्तिष्करूप द्युलोक में (हर्यतः) = कमनीय (केतु:) = [antellect] बुद्धि व प्रज्ञान (अधि धायि) = आधिक्येन धारण होता है। [२] (वज्रः) = इसकी क्रियाशीलता (विव्यचत्) = विस्तृत होती है, जो क्रियाशीलता रंह्या वेग के दृष्टिकोण से (हरितः न) = सूर्याश्वों के समान होती है । सूर्य के अश्व जैसे अत्यन्त वेगवाले हैं, इसी प्रकार यह सब क्रियाओं को स्फूर्ति से करनेवाला होता है । [३] (अहिं तुदत्) = जैसे सूर्य अहि, अर्थात् मेघ को (तुदत्) = छिन्न-भिन्न करता है, इसी प्रकार यह वासना को [आहन्ति] नष्ट करता है। (हरिशिप्रः) = इसके हनू व नासिका इसके दुःखों का हरण करनेवाले होते हैं हितकर भोजनों को यह चवाकर खाता है और प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है । इससे यह वह बनता है (यः) = जो (आयसः) = लोहे का हो, अत्यन्त दृढ़ शरीरवाला होता है तथा (हरिम्भरः) = दुःखनाशक प्रभु का अपने हृदयक्षेत्र में पोषण करनेवाला यह (सहस्रशोकाः अभवत्) = शतशः दीप्तियोंवाला होता है । इसका जीवन बड़ा दीप्त बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- मस्तिष्क में ज्ञान को तथा हाथों में क्रियाशीलता को धारण करके हम प्रभु का अपने में पोषण करनेवाले होते हैं। प्रभु पोषण से जीवन दीप्त हो उठता है ।