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दि॒वि न के॒तुरधि॑ धायि हर्य॒तो वि॒व्यच॒द्वज्रो॒ हरि॑तो॒ न रंह्या॑ । तु॒ददहिं॒ हरि॑शिप्रो॒ य आ॑य॒सः स॒हस्र॑शोका अभवद्धरिम्भ॒रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

divi na ketur adhi dhāyi haryato vivyacad vajro harito na raṁhyā | tudad ahiṁ hariśipro ya āyasaḥ sahasraśokā abhavad dharimbharaḥ ||

पद पाठ

दि॒वि । न । के॒तुः । अधि॑ । धा॒यि॒ । ह॒र्य॒तः । वि॒व्यच॑त् । वज्रः॑ । हरि॑तः । न । रंह्या॑ । तु॒दत् । अहि॑म् । हरि॑ऽशिप्रः । यः । आ॒य॒सः । स॒हस्र॑ऽशोकाः । अ॒भ॒व॒त् । ह॒रि॒म्ऽभ॒रः ॥ १०.९६.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:96» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हर्यतः) कमनीय परमात्मा (दिवि केतुः-न) आकाश में सूर्य जैसा स्तुतिकर्त्ताओं के द्वारा (अधि धायि) अपने आत्मा में अधिष्ठित किया (वज्रः) उस परमात्मा का ओज (विव्यचत्) जगत् में व्यापता है (रंह्या) वेगपूर्ण गति से (हरितः-न) रश्मियाँ जैसे सर्वत्र व्याप जाती हैं। (यः) जो परमात्मा (हरिशिप्रः) मनोहर स्वरूपवाला (आयसः) समन्त प्रयत्नशील (सहस्रशोकाः) बहुत तेजस्वी (हरिम्भरः) दुःखहरण गुणधारक (अभवत्) है ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा कमनीय है, उसे उपासक अपने आत्मा में सूर्य के समान साक्षात् करते हैं, वह मनोहर स्वरूपवाला बहुत तेजस्वी दुःख हरनेवाले गुणों से पूर्ण है, अनन्त प्रयत्नवान् है, उसका ओज जगत् में व्याप्त हो रहा है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हरिम्भरः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (दिवि केतुः न) = द्युलोक में सूर्य की किरणों के समान [केतु = a ray of light] (दिवि) = इस उपासक के मस्तिष्करूप द्युलोक में (हर्यतः) = कमनीय (केतु:) = [antellect] बुद्धि व प्रज्ञान (अधि धायि) = आधिक्येन धारण होता है। [२] (वज्रः) = इसकी क्रियाशीलता (विव्यचत्) = विस्तृत होती है, जो क्रियाशीलता रंह्या वेग के दृष्टिकोण से (हरितः न) = सूर्याश्वों के समान होती है । सूर्य के अश्व जैसे अत्यन्त वेगवाले हैं, इसी प्रकार यह सब क्रियाओं को स्फूर्ति से करनेवाला होता है । [३] (अहिं तुदत्) = जैसे सूर्य अहि, अर्थात् मेघ को (तुदत्) = छिन्न-भिन्न करता है, इसी प्रकार यह वासना को [आहन्ति] नष्ट करता है। (हरिशिप्रः) = इसके हनू व नासिका इसके दुःखों का हरण करनेवाले होते हैं हितकर भोजनों को यह चवाकर खाता है और प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है । इससे यह वह बनता है (यः) = जो (आयसः) = लोहे का हो, अत्यन्त दृढ़ शरीरवाला होता है तथा (हरिम्भरः) = दुःखनाशक प्रभु का अपने हृदयक्षेत्र में पोषण करनेवाला यह (सहस्रशोकाः अभवत्) = शतशः दीप्तियोंवाला होता है । इसका जीवन बड़ा दीप्त बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- मस्तिष्क में ज्ञान को तथा हाथों में क्रियाशीलता को धारण करके हम प्रभु का अपने में पोषण करनेवाले होते हैं। प्रभु पोषण से जीवन दीप्त हो उठता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हर्यतः) कमनीयः परमात्मा (दिवि केतुः-न) स्तोतृभिराकाशे केतुमान् “मतुब्लोपश्छान्दसः” रश्मीन् सूर्य इव “रश्मयः केतवः” [निरु० १२।१४] “लुप्तोपमावाचकालङ्कारः” (अधि धायि) स्वात्मनि खल्वधिधारितः (वज्रः-विव्यचत्) अस्य परमात्मन ओजः “वज्रो वा ओजः” [श० ८।४।१।२०] जगति व्याप्नोति (रंह्या हरितः न) स्वगत्या-स्ववेगेन यथाऽन्धकारहरणशीला रश्मयः “हरितः हरणानादित्यरश्मीन्” [निरु० १०।११] सर्वत्र व्याप्नुवन्ति (यः-हरिशिप्रः) यो मनोहरस्वरूपः (आयसः) समन्तप्रयत्नशीलः (सहस्रशोकाः) बहुतेजस्कः ‘सहस्रं बहुनाम’ [निघं० ३।१] “शोकसः-तेजः” शोचति ज्वलतिकर्मा [निघं० १।६] “तत औणादिकोऽसुन् प्रत्ययः” सहस्रं शोकस् यस्य सः (हरिम्भरः-अभवत्) दुःखहरणगुणधारको भवति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The power of Indra, the Bajra, is held as the sun blazing in heaven. It expands and pervades like the bright rays radiating all over space. Destroying evil, breaking the clouds of darkness, glorious and mighty, the adamantine Bajra of a thousand flames shines as the symbol of the power of omnipotence.