पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ये) = जो भी उपासक (हि) = निश्चय से उस (योनिम्) = सबके मूल उत्पति स्थान (हरिम्) = सबके दुःखों का हरण करनेवाले प्रभु के (समस्वरन्) = नामों का उच्चारण करते हैं, वे इस प्रकार (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (हिन्वन्तः) = प्रेरित करते हैं (यथा) = जिससे (दिव्यं सदः) = उस प्रकाशमय प्रभु के स्थान को [Divere seat] प्राप्त होते हैं। उस दिशा में ही इनके इन्द्रियाश्व प्रेरित होते हैं, जिस = दिशा में चलते हुए वे इस प्रकाशमय स्थान को प्राप्त करानेवाले बनते हैं । [२] (नः च) = और (यम्) = जिसको [न इति चार्थे ] (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेदवाणियाँ (हरिभिः) = ज्ञान की रश्मियों से (पृणन्ति) = [ delight] प्रसन्न करती हैं, अर्थात् जो वेदवाणियों का अध्ययन करता है और उन वाणियों से ज्ञानरश्मियों को प्राप्त करके आनन्द का अनुभव करता है। उस (इन्द्राय) = [इन्द्रस्य सा० ] जितेन्द्रिय पुरुष के (हरिवन्तम्) = प्रशस्त ज्ञानरश्मियोंवाले (शूषम्) = शत्रु शोषक बल को (अर्चत) = सत्कृत करो। इसके प्रकाशमय बल के अर्चन से हमारे में भी इसके मार्ग पर चलने की वृत्ति उत्पन्न होगी और उस मार्ग पर चलते हुए हम भी प्रकाशयुक्त बल को प्राप्त करनेवाले होंगे।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम उन व्यक्तियों के प्रकाशमय बल का अर्चन करें जो [क] प्रभु को 'हरि योनि' नाम से स्मरण करते हैं, [ख] अपने इन्द्रियाश्वों को प्रभु के दिव्य-स्थान की ओर प्रेरित करते हैं, [ग] ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेदवाणियों की ज्ञानरश्मियों में आनन्द अनुभव करते हैं । वस्तुतः इन वाणियों में आनन्द अनुभव करने के कारण ही वे ज्ञान व बल को प्राप्त कर सकते हैं ।