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अपा॒: पूर्वे॑षां हरिवः सु॒ताना॒मथो॑ इ॒दं सव॑नं॒ केव॑लं ते । म॒म॒द्धि सोमं॒ मधु॑मन्तमिन्द्र स॒त्रा वृ॑षञ्ज॒ठर॒ आ वृ॑षस्व ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apāḥ pūrveṣāṁ harivaḥ sutānām atho idaṁ savanaṁ kevalaṁ te | mamaddhi somam madhumantam indra satrā vṛṣañ jaṭhara ā vṛṣasva ||

पद पाठ

अपाः॑ । पूर्वे॑षाम् । ह॒रि॒ऽवः॒ । सु॒ताना॑म् । अथो॒ इति॑ । इ॒दम् । सव॑नम् । केव॑लम् । ते॒ । म॒म॒द्धि । सोम॑म् । मधु॑ऽमन्तम् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्रा । वृ॒ष॒न् । ज॒ठरे॑ । आ । वृ॒ष॒स्व॒ ॥ १०.९६.१३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:96» मन्त्र:13 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:13


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हरिवः) हे उपासक मनुष्योंवाले (इन्द्र) परमात्मन् ! (सुतानां पूर्वेषाम्) उत्पन्न पूर्व उपासकों के (अपाः) उपासनारस को तू रखता है-स्वीकार करता है (इदं सवनम्) यह अध्यात्मयज्ञ (केवलं ते) केवल तेरा है-तेरी प्राप्ति के लिये किया जाता है (वृषन्) हे सुखवर्षक देव ! (मधुमन्तम्) दिया जाता हुआ मधुर उपासनारस जिसके पास हो, उस मधुर रसवाले (सोमम्) सौम्यस्वभाव उपासक को (ममद्धि) हर्षित कर (सत्रा) सत्यस्वरूप आत्मा के (जठरे) मध्य (आ वृषस्व) भलीभाँति अपने आनन्द को सिञ्च-वर्षा ॥१३॥
भावार्थभाषाः - उपासक मनुष्यों का इष्टदेव पूर्व उपासकों के उपासनारस को स्वीकार करता है तथा उपासक को हर्षित करता तथा अपने आनन्द को उसके आत्मा में सींच देता है-भरपूर कर देता है, उसकी उपासना अवश्य करनी चाहिए ॥१३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सोम का पान

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले जीव ! (तूने पूर्वेषाम्) = इन पालन व पूरण करनेवाले (सुतानाम्) = उत्पादित सोमों का (अपाः) = पान किया है। (अथ उ) = और निश्चय से (इदं सवनम्) = यह सोम का उत्पादन (केवलं ते) = शुद्ध तेरे ही उत्कर्ष के लिए है । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (मधुमन्तं सोमम्) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले इस सोम को (ममद्धि) = [पिब आस्वादय सा०] पीनेवाला बन। हे (वृषन्) = शक्तिशालिन् ! तू (सत्रा) = सदा (जठरे) = अपने अन्दर (आवृषस्व) = इससोम का सेचन करनेवाला बन । यही मार्ग है, सब प्रकार के उत्कर्ष का । इसी सोम के पान से उन्नति करते-करते अन्त में प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम सोम का पान करें। इसी से अन्त में हम प्रभु-दर्शन करनेवाले बनेंगे। सूक्त का भाव यह है कि हम सोम का पान करके सब रोगों व अन्य कष्टों का निवारण करनेवाले बनें । 'यह सोम ओषधि वनस्पतियों का ही सारभूत होना चाहिए' इस संकेत को करता हुआ अगला सूक्त 'ओषधयः' देवता का है। इन ओषधियों वनस्पतियों के द्वारा उत्पन्न सोम के रक्षण से शरीर में सब रोगों का निराकरण करनेवाला 'भिषक्' प्रस्तुत सूक्त का ऋषि है। यह 'आथर्वण' है, चित्तवृत्ति को न डाँवाडोल होने देनेवाला है, यह आथर्वण ही तो सोम का रक्षण कर पाता है । यह कहता है कि-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हरिवः इन्द्र) हे-उपासकमनुष्यवन् परमात्मन् ! “हरिवान् बहुप्रशस्तमनुष्ययुक्तः” [ऋ० ७।३२।१२ दयानन्दः] (सुतानां पूर्वेषाम्) उत्पन्नानां पूर्वेषामुपासकानाम् (अपाः) उपासनारसं त्वं रक्षसि-स्वीकरोषि (इदं सवनम्) अयमध्यात्मयज्ञः “सवनं यज्ञनाम” [निघ० ३।७] (केवलं ते) केवलं तवैव तव प्राप्तये क्रियते (वृषन्) हे सुखवर्षक परमात्मन् ! (मधुमन्तं सोमं ममद्धि) दीयमानमधुर उपासनारसो यस्य पार्श्वे तं मधुरोपासनारसवन्तं सोम्यस्वभावमुपासकं हर्षय “ममत्सि हर्षयसि” [ऋ० ४।२१।९ दयानन्दः] (सत्रा जठरे-आ वृषस्व) सत्यस्वरूपस्य आत्मनो मध्ये “मध्यं वै जठरम्” [श० ७।१।१।२२] समन्तात् स्वानन्दं सिञ्च “वृषस्व सिञ्चस्व” [ऋ० १।१०४।९ दयानन्दः] ॥१३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of light divine and solar radiations, you have drunk of the soma of the ancients of earliest sessions. This yajna session and the soma extracted in here is only for you. O lord of generous showers in this session, pray, drink of the honey sweet soma of our love and faith and let the showers of bliss flow and fill the skies and space unto the depth of our heart.