पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले जीव ! (तूने पूर्वेषाम्) = इन पालन व पूरण करनेवाले (सुतानाम्) = उत्पादित सोमों का (अपाः) = पान किया है। (अथ उ) = और निश्चय से (इदं सवनम्) = यह सोम का उत्पादन (केवलं ते) = शुद्ध तेरे ही उत्कर्ष के लिए है । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (मधुमन्तं सोमम्) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले इस सोम को (ममद्धि) = [पिब आस्वादय सा०] पीनेवाला बन। हे (वृषन्) = शक्तिशालिन् ! तू (सत्रा) = सदा (जठरे) = अपने अन्दर (आवृषस्व) = इससोम का सेचन करनेवाला बन । यही मार्ग है, सब प्रकार के उत्कर्ष का । इसी सोम के पान से उन्नति करते-करते अन्त में प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम सोम का पान करें। इसी से अन्त में हम प्रभु-दर्शन करनेवाले बनेंगे। सूक्त का भाव यह है कि हम सोम का पान करके सब रोगों व अन्य कष्टों का निवारण करनेवाले बनें । 'यह सोम ओषधि वनस्पतियों का ही सारभूत होना चाहिए' इस संकेत को करता हुआ अगला सूक्त 'ओषधयः' देवता का है। इन ओषधियों वनस्पतियों के द्वारा उत्पन्न सोम के रक्षण से शरीर में सब रोगों का निराकरण करनेवाला 'भिषक्' प्रस्तुत सूक्त का ऋषि है। यह 'आथर्वण' है, चित्तवृत्ति को न डाँवाडोल होने देनेवाला है, यह आथर्वण ही तो सोम का रक्षण कर पाता है । यह कहता है कि-