उर्वशी का [प्रकाशम्] प्रकट उत्तर
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (पुरुरवः) = खूब प्रभु का स्तवन करनेवाले पतिदेव ! क्या आप ही (अह्नः त्रिः) = दिन में कम से कम तीन बार (मा) = मुझे (वैतसेन) = वेत्रदण्ड से (श्नथयः स्म) = ताड़ित ही करते हो, (उत स्म) = या निश्चय से (अव्यत्यै मे) = [अवि अती, अत सातत्यगमने] कभी भी इधर-उधर न जानेवाली मेरे लिए घर पर रहकर ठीक से कार्यों में लगी रहनेवाली के लिए पृणासि कुछ मधुर शब्दों से सुख को देनेवाले भी होते हो । [२] उठते ही 'यह करो, यह लाओ' इन शब्दों से आफत - सी कर देना, ऑफिस आदि जाते समय भी 'ये चीज यहाँ क्यों पड़ी है ? क्या मुफ्त में आयी है ?' आदि शब्दों से झाड़ना, फिर वापिस आने पर 'झटपर करो न' आदि शब्दों से मुझे भी उतावली- सा कर देना, यही यहाँ 'तीन बार ताड़ना' शब्द से संकेतित हुआ है। पति को पत्नी के बोझ का ध्यान करते हुए उसके कार्यों की आलोचना न करना ही ठीक है । [३] उर्वशी कहती है कि हे पुरुरवः! मैं तो (ते केतं अनु) = आपके ज्ञान की बात को सुनने के बाद (आयम्) = आपकी संगिनी बनकर इस घर में आयी। वीर हे वीर पुरुषोचित कर्मों के करनेवाले पुरुरवः ! (तदा) = तब, जब कि मैंने आपके ज्ञान की चर्चा सुनी, तो (मे तन्वः) = मेरे शरीर के (राजा आसी:) = आप राजा हो गये थे। मैंने मन से अपने को आपके प्रति सौंप दिया था। मुझे आपके इस प्रकार क्रुद्ध हो जाने का ज्ञान न था। प्रभु स्तवन करनेवाला वीर पुरुष क्रोध कर भी कैसे सकता है ? [४] उर्वशी के इस प्रकार कहने का पुरुरवा पर सुन्दर प्रभाव पड़ता है और पुरुरवा कहते हैं-
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उर्वशी पति से कहती है कि आप तो यूँही क्रोध करने लगते हो। मैं क्या इधर- उधर कभी व्यर्थ में जाती हूँ? काम में ही तो लगी रहती हूँ। मैंने जरा बात नहीं की तो क्या प्रलय आ गयी ? आप 'पुरुरव: ' हैं, 'वीर' हैं, सो क्यों क्रोध करना ?