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क॒दा सू॒नुः पि॒तरं॑ जा॒त इ॑च्छाच्च॒क्रन्नाश्रु॑ वर्तयद्विजा॒नन् । को दम्प॑ती॒ सम॑नसा॒ वि यू॑यो॒दध॒ यद॒ग्निः श्वशु॑रेषु॒ दीद॑यत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kadā sūnuḥ pitaraṁ jāta icchāc cakran nāśru vartayad vijānan | ko dampatī samanasā vi yūyod adha yad agniḥ śvaśureṣu dīdayat ||

पद पाठ

क॒दा । सू॒नुः । पि॒तर॑म् । जा॒तः । इ॒च्छा॒त् । च॒क्रन् । न । अश्रु॑ । व॒र्त॒य॒त् । वि॒ऽजा॒नन् । कः । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । सऽम॑नसा । वि । यू॒यो॒त् । अध॑ । यत् । अ॒ग्निः । श्वशु॑रेषु । दीद॑यत् ॥ १०.९५.१२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:95» मन्त्र:12 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:12


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कदा) कब (जातः) उत्पन्न हुआ (सूनुः) पुत्र (पितरम्) पिता को (इच्छात्) चाहे-पहिचाने (चक्रन्) रोता हुआ पुत्र (विजानन्) पिता को जानता हुआ (अश्रु) आँसू (न वर्तयत्) न निकाले-न बहावे, पिता के पास आकर शान्त हो जावे (कः) कौन पुत्र (समनसा) मन के साथ या मनोयोग से (दम्पती) भार्यापति-स्व माता पिता को (वि यूयोत्) विवेचित करे-कर सके-कोई नहीं (अथ) अनन्तर (अग्निः) कामाग्नि (श्वशुरेषु) कुत्ते के समान हिंसित करनेवाले जारों, कामी, व्यभिचारियों के (दीदयत्) दीप्त होती है, तब केवल कामातुर व्यभिचारी अकस्मात् पिता हुआ पुत्र को स्नेह नहीं करता है, पुनः पुत्र उसे कैसे चाहे और जाने ॥१२॥
भावार्थभाषाः - पुत्र उस पिता को चाहता है, जो पुत्र की कामना से उसे उत्पन्न करता है, उसके पास रोता हुआ शान्त हो जाता है। केवल व्यभिचारी कामातुर से अकस्मात्-उत्पन्न हुए को वह स्नेह नहीं करता है, पुनः पुत्र उसे कैसे चाहे ? अतः पुत्र की इच्छा से गृहस्थ जीवन या गृहस्थाश्रम निभाना चाहिए ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सन्तानों का पितृगृह में ही जन्म लेना

पदार्थान्वयभाषाः - [१] पुरुरवा कहते हैं कि (कदा) = कब (सूनुः) = पुत्र (जातः) = उत्पन्न हुआ - हुआ (पितरं इच्छात्) = पिता को चाहता है ? वस्तुतः यह बात स्वाभाविक है कि वह पितृकुल में उत्पन्न होगा तो पिता के प्रति स्नेहवाला होगा। पर मातृकुल में उत्पन्न होने पर उसका स्नेह कुछ 'नाना नानी' से अधिक हो जाएगा। [२] यह सन्तान (विजानन्) = कुछ ज्ञानवाला होने पर, अपने माता-पिता के कुछ फटाव को अनुभव करता हुआ, (चक्रन्) = दिल ही दिल में क्रन्दन करता हुआ यह (अश्रु न वर्तयत्) = यह आँसू ही न बहाता रहे। इस सब बात का ध्यान करते हुए उर्वशी को पतिगृह में चले ही आना चाहिए। [३] (अध) = अब (यदद्यदि अग्निः श्वशुरेषु दीदयत्) = मेरे पुत्र के संस्कारों के समय दीप्त होनेवाली अग्नि मेरे श्वशुर कुलों में ही दीप्त हो, तो यह (कः) = आनन्द वृद्धि का कारणभूत पुत्र भी समनसा-समान व संगत मनवाले भी (दम्पती) = पति पत्नी को (वियूयोत्) = पृथक् कर देनेवाला हो जाएगा। सो यही ठीक है कि तुम मेरे साथ चली चलो। और अपने ही घर में यह हमारा सन्तान हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - यदि सन्तान बच्चे के पिता के श्वशुर कुल में जन्म लेंगे तो उनका प्रेम नाना-नानी की ओर ही रहेगा ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कदा जातः सूनुः) कदा खलूत्पन्नः पुत्रः (पितरम्-इच्छात्) स्वपितरं जनकं काङ्क्षेत्-परिचिनुयात् (चक्रन् विजानन् अश्रु न वर्तयत्) क्रन्दमानः पितरं विजानन् खल्वश्रूणि न वर्तयेत्-न पातयेत् तत्पार्श्वे ह्यागत्य शान्तो भवेत् (कः-समनसा) कः पुत्रो मनसा सह मनोयोगेन वा (दम्पती वि यूयोत्) भार्यापती-स्वमातरं स्वपितरं च विश्लेषयेत्, न कोऽपि (अध) अनन्तरं (अग्निः) कामाग्निः (श्वसुरेषु दीदयत्) श्वा-इव हिंसकेषु व्यभिचारिषु दीप्यते तदा न केवलं कामातुरो व्यभिचारी सन् पिता पुत्रं स्निह्यति पुनः कथं पुत्रस्तं विजानीयात् ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When would the progeny born, grown, knowing and coming without tears and actively doing love and favour the parents? And who would separate the couple wedded in mutual love when the passion for life shines among the brave? None.