पत्नी की बातों को उपेक्षित न करना
पदार्थान्वयभाषाः - [१] उर्वशी अपने दोहद काल के समय [pregnancy] अपने मातृकुल में चली जाती है । स्पष्ट है कि पुरुरवा से वह प्रसन्न नहीं। पुरुरवा उसे लिवा लाने के लिए आते हैं। तो उर्वशी उपालम्भ देती हुई कहती है कि मैं (विदुषी) = गर्भिणी अवस्था की सब बातों को खूब समझती हुई (समस्मिन् अहन्) = सब दिनों (त्वा) = आपको (अशासम्) = आवश्यक बातें कहती रही, आवश्यक चीजों को जुटाने का संकेत करती रही। [२] मैं यह समय-समय पर कहती ही रही कि आप (इत्था) = इस प्रकार वर्तने से (हि) = निश्चयपूर्वक (गोपीथ्याय) = [गो-भूमि] भूमिरूप स्त्री की रक्षा के लिए [पीथंरक्षणम्], जिस भूमि में मनुष्य बीज का वपन करते हैं, उसकी रक्षा के लिए, जज्ञिषे होते हैं । हे पुरुरवः ! यह भी मैंने आपको कहा कि इस प्रकार आप (तत् मे ओजः) = मेरे उस ओज को, शक्ति को (दधाथ) = स्थिरता से धारण करनेवाले होते हैं। [३] मैंने यह सब कुछ कहा, परन्तु आपने (मे न अशृणोः) = मेरी बात को नहीं सुना। आपने मेरी बातों को मूर्खतापूर्ण समझा और ध्यान नहीं दिया । सो अब (अभुक्) = न पालन करनेवाले (किं वदासि) = क्या व्यर्थ में कहते हैं ! ये सब बातें व्यर्थ हैं, अब मेरा विचार यहीं रहने का है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- दोहदकाल में पत्नी की इच्छाओं का विशेषरूप से पूरण आवश्यक है। सामान्यतः 'पत्नी को गृह की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कभी परेशानी न उठानी पड़े' यह पति का आवश्यक कर्त्तव्य है ।