'सुपर्ण - कृष्ण - इषिर- सूर्यश्वित्'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सुपर्णाः) = उत्तमता से अपना पालन व पूरण करनेवाले, शरीर को रोगों से बचानेवाले तथा मन की न्यूनताओं को दूर करके उसका पूरण करनेवाले, ज्ञानी पुरुष (वाचं अक्रत) = इस ज्ञान की वाणी को अपना करने का प्रयत्न करते हैं, स्वाध्याय के द्वारा इसे समझने के लिये यत्नशील होते हैं। इसी दृष्टिकोण से ये (द्यवि उप) = उस प्रकाशमय प्रभु की उपासना करते हैं । (आ-ख-रे) = समन्तात् आकाश की तरह व्यापक होकर गति देनेवाले [री गतौ ] प्रभु में ये (कृष्णाः) = अपनी इन्द्रियों को विषयों से खींच लेनेवाले, प्रत्याहृत करनेवाले (इषिराः) - गतिशील लोग (अनर्तिषुः) = इस जीवन के नृत्य को करते हैं। इनकी सब क्रियाएँ प्रभु में स्थित होकर होती हैं। इनके जीवन-नाटक का सूत्रधार प्रभु होता है । [२] (न्यङ् नियन्ति) = नीचे नम्र होकर ये निश्चय से चलते हैं। इनकी सब क्रियाएँ नम्रता के साथ होती हैं । (उपरस्य) = मेघ के (निष्कृतम्) = निश्चित कार्य को ये [ नियन्ति] प्राप्त होते हैं। जैसे मेघ ऊपर जल को धारण करनेवाला होता है इसी प्रकार ये भी शक्ति का ऊपर धारण करनेवाले बनते हैं, ऊर्ध्वरेता बनते हैं । [३] इस प्रकार मेघ का अनुकरण करते हुए ये (पुरुरेतः) = पालक व पूरक शक्ति को (दधिरे) = अपने में धारण करते हैं । इस शक्ति के धारण से ये लोग (सूर्यश्वितः) = सूर्य के समान प्रकाश से श्वेत व उज्वल हो उठते हैं। सुरक्षित रेतः शक्ति ज्ञानाग्नि का ईंधन बनती है और ये लोग ज्ञान ज्योति से चमकनेवाले होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु के उपासक 'सुपर्ण, कृष्ण, इषिरर व सूर्यश्वित्' होते हैं ।