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ए॒ते व॑द॒न्त्यवि॑दन्न॒ना मधु॒ न्यू॑ङ्खयन्ते॒ अधि॑ प॒क्व आमि॑षि । वृ॒क्षस्य॒ शाखा॑मरु॒णस्य॒ बप्स॑त॒स्ते सूभ॑र्वा वृष॒भाः प्रेम॑राविषुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ete vadanty avidann anā madhu ny ūṅkhayante adhi pakva āmiṣi | vṛkṣasya śākhām aruṇasya bapsatas te sūbharvā vṛṣabhāḥ prem arāviṣuḥ ||

पद पाठ

ए॒ते । व॒द॒न्ति॒ । अवि॑दन् । अ॒ना । मधु॑ । नि । ऊ॒ङ्ख॒य॒न्ते॒ । अधि॑ । प॒क्वे । आमि॑षि । वृ॒क्षस्य॑ । शाखा॑म् । अ॒रु॒णस्य॑ । बप्स॑तः । ते॒ । सूभ॑र्वाः । वृ॒ष॒भाः । प्र । ई॒म् । अ॒रा॒वि॒षुः॒ ॥ १०.९४.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:94» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एते) ये विद्वान् (अविदन्) जब परमात्मा को जानते तब ही (अना वदन्ति) उसका मुख से उपदेश करते हैं (वृक्षस्य पक्वे) वृक्ष के पके हुए (आमिषि-अधि) सम्भजनीय फल के अन्दर (मधु न्यूङ्खयन्ते) मधुर रस अन्न के समान सेवन करते हैं या अन्न बनाते हैं (सुभर्वाः) शोभन भोजनवाले (वृषभाः) ज्ञानवर्षक (अरुणस्य शाखाम्) आरोचमान  पुष्पित फलित वृक्ष की शाखा पर लगे (वप्सतः) फल के समान ज्ञानफल का भक्षण करते हैं (ईं प्र-अराविषुः) उस परमात्मा को और उसके ज्ञान को बोलते हैं, उपदेश करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जन जैसे ही परमात्मा को जानते हैं, तुरन्त उसका उपदेश किया करते हैं। पुष्पित फलित वृक्ष के अन्दर जैसे रस का आस्वादन-भोजन करते हैं, ऐसे ही प्रकाशमान परमात्मा के ज्ञानफल को ज्ञानी जन सेवन करते हैं और अन्य को उपदेश देते हैं ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अति सात्त्विक भोजन व माधुर्य

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एते) = ये आचार्य (वदन्ति) = ज्ञानोपदेश करते हैं और ज्ञानोपदेश करते हुए (अना) = मुख से (मधु अविदन्) = मधु को प्राप्त करते हैं । मधुर शब्दों में ही ज्ञान देते हैं। कभी क्रोध से कटु शब्द नहीं बोलते। [२] (अधिप आमिषि) = [the fleshy past of a fruit] पूर्ण परिपक्व फलों के गूदे का भोजन होने पर ये आचार्य (न्यूङ्खयन्ते) = [make beantiful ckeruering purpes or right] अपने जीवन को बड़ा सुन्दर बनाते हैं। वानप्रस्थ होने के कारण इनका भोजन वन्य कन्द फल मूल ही होते हैं। इस सात्त्विक भोजन से इनका जीवन भी सात्त्विक ही बनता है । [३] (अरुणस्य) = आरोचमान फलों से चमकते हुए, (वृक्षस्य) = वृक्ष की (शाखाम्) = शाखा को, शाखा पर लगनेवाले फलों को (बप्सतः) = खाते हुए (ते) = वे आचार्य (सूभर्वा:) = उत्तम भोजनों से अपना भरण करनेवाले और अतएव (वृषभाः) = शक्तिशाली होते हुए (ईम्) = निश्चय से (प्र अराविषुः) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-आचार्य लोग मधुर शब्दों में ज्ञान देते हैं। इनके माधुर्य का रहस्य इस बात में है कि ये सात्त्विक भोजन करते हैं और प्रभु का स्तवन करते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एते) इमे विद्वांसः (अविदन्) यदा परमात्मानं विदन्ति-जानन्ति तदैव (अना वदन्ति) अन्यते, प्राण्यते प्राणो गृह्यते येन तत्-अन् मुखं तेन मुखेन वदन्ति-उपदिशन्ति (वृक्षस्य पक्वे-आमिषि-अधि) वृक्षस्य पक्वे सम्भजनीये फले “सम्भक्तौ” [भ्वादि०] ततः “अमेर्दीर्घश्च-टिषच् प्रत्ययः” [उणादि० १।४६] तत्फलस्यान्तरे (मधु न्यूङ्खयन्ते) मधुरं रसमन्नमिव सेवन्तेऽन्नं कुर्वन्ति वा “अन्नं वै न्यूङ्खः” [ऐत० ५।३] (सुभर्वाः-वृषभाः) शोभनभोजनाः “सुभर्वं भर्वतिरत्तिकर्मा” [निरु० ९।२३] (ज्ञानवर्षकाः) (अरुणस्य शाखां वप्सतः) आरोचमानस्य पुष्पितफलितस्य वृक्षस्य शाखायां “सप्तम्यर्थे द्वितीया व्यत्ययेन छान्दसी” ज्ञानफलं भक्षयन्तः (ईं-प्र-अराविषुः) तं परमात्मानं तज्ज्ञानं शब्दयन्ति-उपदिशन्ति ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - They speak only when they know the subject by experience, having tasted with relish the honey sweets of the juice in the ripe fruit. Enjoying the fruit of life on the bright branch of the tree of existence they, mighty wise, bearing the knowledge by experience in the mind, speak the word of wisdom and reveal the truth.