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तृ॒दि॒ला अतृ॑दिलासो॒ अद्र॑योऽश्रम॒णा अशृ॑थिता॒ अमृ॑त्यवः । अ॒ना॒तु॒रा अ॒जरा॒: स्थाम॑विष्णवः सुपी॒वसो॒ अतृ॑षिता॒ अतृ॑ष्णजः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tṛdilā atṛdilāso adrayo śramaṇā aśṛthitā amṛtyavaḥ | anāturā ajarāḥ sthāmaviṣṇavaḥ supīvaso atṛṣitā atṛṣṇajaḥ ||

पद पाठ

तृ॒दि॒लाः । अतृ॑दिलासः । अद्र॑यः । अ॒श्र॒म॒णाः । अशृ॑थिताः । अमृ॑त्यवः । अ॒ना॒तु॒राः । अ॒जराः॑ । स्थ । अम॑विष्णवः । सु॒ऽपी॒वसः॑ । अतृ॑षिताः । अतृ॑ष्णऽजः ॥ १०.९४.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:94» मन्त्र:11 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:31» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तृदिलाः) पापदुःखनाशक (अतृदिलासः) स्वयं किसी से भी न हिंसित (अद्रयः) श्लोककर्त्ता-ज्ञानवक्ता (अश्रमणाः) श्रमरहित निरन्तर कार्यसमर्थ (अशृथिताः) शिथिलतारहित-प्रयत्नवान् (अमृत्यवः) मृत्युभय से रहित (अनातुराः) पीड़ारहित अव्याकुल (अजराः) जरारहित (अमविष्णवः) प्रवचन में व्यापी-प्रवचनकुशल (सुपीवसः) सुपुष्ट (अतृषिताः) तृष्णारहित-वासनारहित (अतृष्णजः) तृष्णा न उठने देनेवाले संयमी जितेन्द्रिय (स्थ) हो, वे तुम सेवनीय हो ॥११॥
भावार्थभाषाः - जो उत्तम विद्वान् पापदुःखनाशक, अहिंसनीय, ज्ञानवक्ता, न भ्रान्त होनेवाले, कर्मठ, अशिथिल, मृत्युभयरहित, अव्याकुल-शान्त, जरारहित, प्रवचनकुशल, स्वस्थ, वासनारहित, जितेन्द्रिय होते हैं, वे आदर योग्य हैं ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कुचलनेवाला-न कुचला जाता हुआ 'चारवः' की व्याख्या

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के सोमरक्षक पुरुष (चारवः) = सुन्दर जीवनवाले होते हैं । उस सुन्दर जीवन ही की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि ये (तृदिला) = [tread upon, trample upon ] कामादि शत्रुओं को कुचलनेवाले होते हैं, (अतृदिलासः) = उन शत्रुओं से ये कुचले नहीं जाते। इसी कारण (अद्रयः) = आदरणीय जीवनवाले होते हैं (अश्रमणाः) = ये कार्य करते हुए थक नहीं जाते, कार्यों में ये आनन्द का अनुभव करते हैं। (अशृथिता:) = कभी शिथिल नहीं होते, शतशः विघ्न भी इन्हें ढीला नहीं कर पाते। (अमृत्यवः) = ये रोगादि के कारण असमय में मृत्यु का शिकार नहीं होते । (अनातुराः) = मन में किसी प्रकार की आतुरता व्याकुलता से रहित होते हैं, (अजराः स्थ) = सदा अजीर्ण शक्ति होते हैं । [२] अजीर्ण शक्ति होते हुए ये (अमविष्णवः) = [अमगतौ, विष्= व्याप्तौ] व्यापक कर्मोंवाले होते हैं, सदा कर्मों में व्याप्त रहते हैं। कर्मों में व्याप्त रहने के कारण (सुपीवसः) = खूब हृष्ट-पुष्ट होते हैं। [३] (अतृषिता:) = सांसारिक विषयों की तृषा से ये ऊपर उठ जाते हैं, इन विषयों की इन्हें प्यास नहीं रहती । (अतृष्णजः) = सब सांसारिक ऐश्वर्यों की स्पृहा से भी ये दूर होते हैं । धनवाले होते हुए भी ये धन के भाँति लालचवाले नहीं होते ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षक पुरुषों का जीवन मन्त्र वर्णित प्रकार से अत्यन्त सुन्दर बनता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तृदिलाः-अतृदिलासः) पापदुःखनाशकाः “तृदिन् हिंसायाम्” (रुधादि०) तत इलच् प्रत्यय औणादिको बाहुलकात् स्वयं केनापि न हिंस्यः (अद्रयः) श्लोककर्त्तारो ज्ञानवक्तारः (अश्रमणाः) श्रमः श्रमणं तद्रहिताः सततकार्यशक्ताः (अशृथिताः) शृथिता-शिथिलता तद्रहिताः प्रयत्नवन्तः (अमृत्यवः) मृत्युभयरहिताः (अनातुराः) पीडारहिताः (अजराः) जरारहिताः (अमविष्णवः) अमे शब्दे प्रवचने व्यापिनः (सुपीवसः) सुपुष्टाः (अतृषिताः) तृष्णारहिताः वासनारहिताः (अतृष्णजः) तृष्णां न जनयन्ति ते जितेन्द्रियाः (स्थ) भवथ, ते सेवनीयाः ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O revered sages, be ever relentless, inviolable, destroyers of evil, indefatigable, immortal, unafflicted, unaging, steadfast and dynamic, strong and healthy, uninhibited and unfrustrated, and free from greed.