सूर्य व चन्द्र [ उग्रता व शान्ति ] - तेज व क्षमा
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में देवों के लक्षण दिये गये हैं। देवों की यह भी विशेषता होती है कि वे अपने में 'तेजस्विता व क्षमा' इन दोनों ही तत्त्वों का समन्वय करते हैं। सूर्य से वे उग्रता व तेजस्विता का पाठ पढ़ते हैं, तो चन्द्रमा से वे शान्ति व क्षमा को सीखते हैं। दोनों ही आवश्यक हैं। 'कोई कम और कोई अधिक आवश्यक हो' ऐसी बात नहीं है। ये (सधन्या) = समान धन हैं । यहाँ मन्त्र में 'दिवा नक्तं' के स्थान में केवल 'नक्तं' का पाठ है, जैसे 'सत्यभामा' 'भामा' है। (उत) = और (न:) = हमारे में (नक्तम्) = दिन-रात (अपां वृषण्वसू) = प्रजाओं के लिए धन का वर्षण करनेवाले (सूर्यामासा) = सूर्य प्रकाश और चन्द्र आह्लाद (सधन्या) = समान धनवाले होते हुए, अर्थात् एक समान मनुष्य को धन्य बनानेवाले, इतना ही नहीं, परस्पर मिलकर मनुष्य को धन्य बनानेवाले (सदनाय) = निवास के लिए हों। हमारे में जैसे सूर्य का निवास हो, उसी प्रकार चन्द्रमा का । हम तेजस्विता व क्षमा दोनों को धारण करें। हम केवल उग्र ही उग्र न हों, केवल शान्त ही शान्त न हों । उग्रता व शान्ति का अपने में समन्वय करें। [२] (यत् एषाम्) = जब इन दोनों के जीवनों में (सचा) = इन सूर्य और चन्द्र का मेल होता है तो (अहिर्बुध्नेषु) = अहीन आधारवाले, न नष्ट होनेवाले, प्रकृति जीव व परमात्मा में (बुध्न्यः) = सर्वोत्तम आधारभूत प्रभु (सादि) = स्थित होते हैं । हम अपने जीवनों में सूर्य व चन्द्र का मेल करें, तो हमें अवश्य प्रभु की प्राप्ति होगी, यहाँ 'नित्यो नित्यानां' की तरह ही 'अहिर्बुध्नेषु बुध्न्यः ' ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं। वे प्रभु अक्षरों में भी अक्षर अथवा 'परम अक्षर' हैं। [३] सूर्य हमारे में 'चक्षु' रूप से रहता है और चन्द्रमा 'मन' के रूप में हम चक्षु आदि इन्द्रियों को सशक्त व निर्मल बनाएँ और मन को सदा प्रसादयुक्त रखने का प्रयत्न करें। यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम सूर्य की तरह तेजस्वी हों, चन्द्रमा की तरह शान्त व आह्लादमय तभी हमें प्रभु का आधार प्राप्त होगा ।