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य॒ज्ञेय॑ज्ञे॒ स मर्त्यो॑ दे॒वान्त्स॑पर्यति । यः सु॒म्नैर्दी॑र्घ॒श्रुत्त॑म आ॒विवा॑सत्येनान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajñe-yajñe sa martyo devān saparyati | yaḥ sumnair dīrghaśruttama āvivāsaty enān ||

पद पाठ

य॒ज्ञेऽय॑ज्ञे । सः । मर्त्यः॑ । दे॒वान् । स॒प॒र्य॒ति॒ । यः । सु॒म्नैः । दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मः । आ॒ऽविवा॑साति । ए॒ना॒न् ॥ १०.९३.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:93» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञे यज्ञे) प्रत्येक यज्ञ में (सः-मर्त्यः) वह जो मनुष्य (देवान् सपर्यति) वायु आदि दिव्य पदार्थों को परिष्कृत करता है, स्वानुकूल बनाता है (यः) जो (दीर्घश्रुत्तमः) बहुत काल तक अत्यन्त शास्त्र श्रवण करनेवाला है, वह (सुम्नैः) सुखों से सम्पन्न होता है (एनान्-आविवासति) इन देवों को भलीभाँति परिपूर्णरूप से उपयुक्त बनाता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ के द्वारा वायु आदि देवों को संस्कृत करनेवाला मनुष्य सुखों से पूर्ण हो जाता है, इसलिए उन देवों को उपयोगी बना लेता है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यज्ञ-स्तवन- स्वाध्याय

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार कामादि शत्रुओं का तथा बाह्य शत्रुओं का पराभव करनेवाला (स मर्त्यः) = वह मनुष्य (यज्ञे यज्ञे) = प्रत्येक उत्तम कर्म में (देवान्) = देवों का (सपर्यति) = पूजन करता है | देवों का पूजन उत्तम कर्मों से ही होता है। प्रभु महादेव हैं, उनका पूजन तो यज्ञ से होता ही है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः'। वाय्वादि देवों के पूजन के लिए यह 'देवयज्ञ' [अग्निहोत्र] किया जाता है। माता, पिता, आचार्यादि देवों का पूजन भी उत्तम कर्मों से ही होता है, हमारे उत्तम कर्मों से उन्हें प्रसन्नता होती है। [२] (यः) = जो व्यक्ति (सुम्नैः) = स्तोत्रों के साथ [ सुम्न = hymn] (दीर्घश्रुत्तमः) = अधिक से अधिक [तम] अन्धकार निवारक [दीर्घ-दृ विदारणे] ज्ञानवाला बनता है, अर्थात् जो भी निरन्तर स्तवन व स्वाध्याय में प्रवृत्त होता है, वही (एनान्) = इन देवों की (आविवासाति) = परिचर्या करता है। देवों का पूजन यही है कि हम स्तवन व स्वाध्याय को अपनाएँ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- देव पूजन 'यज्ञों' से तथा स्तवन व स्वाध्याय से होता है। वही सच्चा उपासक है जिसके हाथ यज्ञों में प्रवृत्त हैं, हृदय में सुम्न [स्तोत्र ] हैं तथा मस्तिष्क स्वाध्याय से दीप्त है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञे यज्ञे) प्रत्येकस्मिन् यज्ञे (सः-मर्त्यः-देवान् सपर्यति) स हि मनुष्यो दिव्यान् वाय्वादीन् पदार्थान् परिचरति स्वानुकूली करोति (यः) यः खलु (दीर्घश्रुत्तमः) दीर्घकालातिशयितशास्त्रश्रवणकृत् (सुम्नैः) सुखैः सम्पन्नो भवति (एनान्-आविवासति) एतान् समन्तात् परिचरति परित-उपयुक्तान् करोति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - That mortal man serves and augments the divinities who, risen in knowledge and wisdom by reading and listening to the utmost, serves them in every yajnic programme with holy works of cleansing and replenishment to be creative and productive more and more.