पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार कामादि शत्रुओं का तथा बाह्य शत्रुओं का पराभव करनेवाला (स मर्त्यः) = वह मनुष्य (यज्ञे यज्ञे) = प्रत्येक उत्तम कर्म में (देवान्) = देवों का (सपर्यति) = पूजन करता है | देवों का पूजन उत्तम कर्मों से ही होता है। प्रभु महादेव हैं, उनका पूजन तो यज्ञ से होता ही है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः'। वाय्वादि देवों के पूजन के लिए यह 'देवयज्ञ' [अग्निहोत्र] किया जाता है। माता, पिता, आचार्यादि देवों का पूजन भी उत्तम कर्मों से ही होता है, हमारे उत्तम कर्मों से उन्हें प्रसन्नता होती है। [२] (यः) = जो व्यक्ति (सुम्नैः) = स्तोत्रों के साथ [ सुम्न = hymn] (दीर्घश्रुत्तमः) = अधिक से अधिक [तम] अन्धकार निवारक [दीर्घ-दृ विदारणे] ज्ञानवाला बनता है, अर्थात् जो भी निरन्तर स्तवन व स्वाध्याय में प्रवृत्त होता है, वही (एनान्) = इन देवों की (आविवासाति) = परिचर्या करता है। देवों का पूजन यही है कि हम स्तवन व स्वाध्याय को अपनाएँ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- देव पूजन 'यज्ञों' से तथा स्तवन व स्वाध्याय से होता है। वही सच्चा उपासक है जिसके हाथ यज्ञों में प्रवृत्त हैं, हृदय में सुम्न [स्तोत्र ] हैं तथा मस्तिष्क स्वाध्याय से दीप्त है ।