पदार्थान्वयभाषाः - [१] (नु) = अब गतमन्त्र के अनुसार दुःशीम आदि बनकर प्रभु से ज्ञान को प्राप्त करनेवाला, (अत्र) = इस जीवन में (तान्वः) = शरीर की शक्तियों का विस्तार करनेवाला (इत्) = निश्चय से (सप्तः) = शीघ्र ही (सप्त च सप्ततिं च) = सात और सत्तर, अर्थात् सतहत्तर नाड़ीचक्रों के केन्द्रों को (अधिदिदिष्ट) = याचित करता है । इन केन्द्रों के ठीक रहने पर ही वस्तुतः शरीर के स्वास्थ्य का निर्भर है । [२] (पार्थ्य:) = मानस शक्तियों का विस्तार करनेवाला भी इन्हीं को ही (सद्यः) = शीघ्र [अधि] दिदिष्ट = आधिक्येन याचित करता है । इन केन्द्रों के विकृत होने पर मनुष्य अस्थिर मनवाला हो जाता है । [३] (मायवः) = अपने साथ ज्ञान का सम्पर्क करनेवाला पुरुष भी (सद्यः) = शीघ्र ही इन सतहत्तर केन्द्रों के स्वास्थ्य की [अधि] (दिदिष्ट) = याचना करता है । इनके विकृत होते ही मस्तिष्क विकृत हो जाता है और मनुष्य पागल बन जाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सतहत्तर नाड़ीचक्र केन्द्रों के ठीक होने के द्वारा हम 'तान्व - पार्थ्य व मायव' बनें । शरीर, मन व बुद्धि तीनों के स्वास्थ को प्राप्त करने के लिए इन केन्द्रों का ठीक होना आवश्यक है । सम्पूर्ण सूक्त 'तान्व, पार्थ्य व मायव' बनने के साधनों पर सुन्दरता से प्रकाश डाल रहा है। अगला सूक्त ' अर्बुद - काद्रवेय-सर्प' ऋषि का है- 'अर्बुद' [अर्व हिंसायाम्] वासनाओं का संहार करनेवाला है । वासनाओं के संहार के लिये यह 'काद्रवेय' [कदि आह्वाने] प्रभु का आह्वान करनेवाला बनता है, प्रभु का प्रातः सायं आराधन करता है और 'सर्प:' [सृ गतौ ] गतिशील बना रहता है। यह कहता है कि-