वा॒वर्त॒ येषां॑ रा॒या यु॒क्तैषां॑ हिर॒ण्ययी॑ । ने॒मधि॑ता॒ न पौंस्या॒ वृथे॑व वि॒ष्टान्ता॑ ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
vāvarta yeṣāṁ rāyā yuktaiṣāṁ hiraṇyayī | nemadhitā na pauṁsyā vṛtheva viṣṭāntā ||
पद पाठ
व॒वर्त॑ । येषा॑म् । रा॒या । यु॒क्ता । ए॒षा॒म् । हि॒र॒ण्ययी॑ । ने॒मऽधि॑ता । न । पौंस्या॑ । वृथा॑ऽइव । वि॒ष्टऽअ॑न्ता ॥ १०.९३.१३
ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:93» मन्त्र:13
| अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:28» मन्त्र:3
| मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:13
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ब्रह्ममुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (येषां-राया) जिनके देने योग्य ज्ञानधन से (युक्ता) प्रेरित (एषां हिरण्ययी) इन-उन की तजोमयी [वावर्त्त] स्तुति होती है (नेमधिता न) संग्राम में जैसे (पौंस्या) बल (वृथा-इव) अनायास ही (विष्टान्ता) परस्पर मिले लक्ष्य के अन्त तक पहुँचानेवाले होते हैं, वैसे स्तुतियों की शृङ्खला लक्ष्य परमात्मा तक प्राप्त होती है ॥१३॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों के ज्ञानोपदेशानुसार की हुई स्तुति निरन्तर परमात्मा को प्राप्त होती है ॥१३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार
स्तुति-धन- ज्ञान
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (येषाम्) = जिन उपासकों की स्तुति (वावर्त) = विशेषरूप से प्रवृत्त होती है, (एषाम्) = इनकी वह स्तुति (राया युक्त) = धन से युक्त होती हुई (हिरण्ययी) = ज्योतिर्मयी होती है, हित रमणीय होती है । स्तुति के साथ धन का मेल होने पर मस्तिष्क में किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती और इस प्रकार इन उपासकों को ज्ञान की दीप्ति प्राप्त होती है, यह ज्ञान दीप्ति हितकर होती हुई रमणीय है । 'धन' शारीरिक आवश्यकताओं को पूर्ण करता है, तो 'स्तुति' मानस भोजन बनती है तथा 'ज्ञान' [हिरण्य] मस्तिष्क को उज्ज्वल करता है। [२] (न) = जैसे (नेमधिता) = संग्राम में (पौंस्या) = बल (विष्टान्ता) = [विष् व्याप्तौ ] व्याप्तावसान होते हैं, अन्त तक पहुँचानेवाले होते हैं, हमें विजयी बनाते हैं। इसी प्रकार यह धन व हिरण्य से युक्त स्तुति भी (वृथा इव) = अनायास ही बिना किसी अन्य परिश्रम के विष्टान्त होती है, हमें जीवन के लक्ष्य के अन्त तक पहुँचाती है। [३] धन से पृथ्वीलोक का विजय करते हैं, धन के ठीक प्रयोग से शरीर के स्वास्थ्य को सिद्ध करते हैं। स्तुति के द्वारा हृदयान्तरिक्ष के वैर्मत्य को सिद्ध करते हैं, स्तुति के द्वारा हृदयान्तरिक्ष में उमड़नेवाले वासना मेघों को छिन्न-भिन्न कर पाते हैं। ज्ञान के द्वारा मस्तिष्क रूप द्युलोक को दीप्त करके हम ब्रह्मलोक में पहुँचनेवाले बनते हैं। इस प्रकार धन व ज्ञान से युक्त स्तुति हमारे लिए विष्टान्त बनती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमारी स्तुति धन से युक्त होकर हमारे ज्ञान के वर्धन का कारण बने और इस प्रकार हम जीवन के लक्ष्य के अन्त तक पहुँचनेवाले हों ।
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ब्रह्ममुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (येषां राया युक्ता) येषां दातव्येन ज्ञानधनेन प्रेरिता (एषां हिरण्ययी) एतेषां तेषां तेजोमयी [वावर्त=आववर्त] स्तुतिवाग्भवति (नेमधिता न पौंस्या) संग्रामे “नेमधिता संग्रामनाम” [निघ० २।१७] यथा बलानि “पौंस्यानि बलनाम” [निघ० २।९] (वृथा-इव) अनायासेनैव (विष्टान्ता) विष्टान्तानि परस्पराविष्टान्तर्गतानि भवन्ति तथा स्तुतिवाक्शृङ्खला परमात्मगता भवति ॥१३॥
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डॉ. तुलसी राम
पदार्थान्वयभाषाः - The prayer of devotees whose words are replete with the wealth of conscience and sincerity naturally and spontaneously bears the golden fruit of divine love and salvation, just as the heroic exploits of warriors in battle, united and directed to the same one end, lead to victory and never go waste.
