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महि॑ द्यावापृथिवी भूतमु॒र्वी नारी॑ य॒ह्वी न रोद॑सी॒ सदं॑ नः । तेभि॑र्नः पातं॒ सह्य॑स ए॒भिर्न॑: पातं शू॒षणि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahi dyāvāpṛthivī bhūtam urvī nārī yahvī na rodasī sadaṁ naḥ | tebhir naḥ pātaṁ sahyasa ebhir naḥ pātaṁ śūṣaṇi ||

पद पाठ

महि॑ । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । भू॒त॒म् । उ॒र्वी इति॑ । नारी॒ इति॑ । य॒ह्वी इति॑ । न । रोद॑सी॒ इति॑ । सद॑म् । नः॒ । तेभिः॑ । नः॒ । पा॒त॒म् । सह्य॑सः । ए॒भिः । नः॒ । पा॒त॒म् । शू॒षणि॑ ॥ १०.९३.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:93» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में अध्यापक उपदेशकों से ज्ञानग्रहण करना, परमात्मा की उपासना, अग्निहोत्र स्वास्थ्यलाभ के लिये करना चाहिये, इत्यादि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यावापृथिवी महि) यज्ञ करने से आकाश भूमि महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, आकाश मेघ से पूर्ण और भूमि वृष्टिरूप यज्ञफल द्वारा धान्यपूर्ण हो जाती है, अतः (उर्वी नारी) अपने-अपने रूप से विस्तृत होते हुए प्राणियों के जीवन के नेता-ले जानेवाले हो जाते हैं (यह्वी रोदसी) नदियों के समान विश्व का रोधन करनेवाले (नः सदम्) हमारे लिये सदा सुखवाहक हों (तेभिः-नः पातम्) उन अपने-अपने पालक पदार्थों, मेघों और अन्नादि के द्वारा हमारी रक्षा करें (शूषणि) उत्पन्न हुए संसार में (नः-एभिः सह्यसः पातम्) हमारी इन पालक पदार्थों से अत्यन्त बाधित करनेवाले रोग आदि से रक्षा करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ द्वारा आकाश से मेघ बरसता है और भूमि अन्नादि से पूर्ण हो जाती है, जो कि प्राणियों के जीवन के लिये निर्वाहक है। यज्ञ संसार में पीड़ा देनेवाले रोग आदि से भी रक्षा करते हैं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

तेभिः- एभिः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक ! तुम हमारे लिये (महि उर्वी) = खूब विस्तीर्ण होवो । द्युलोक 'मस्तिष्क' है, पृथिवीलोक 'शरीर'। हमारा मस्तिष्क विस्तृत ज्ञान से उज्ज्वल हो, और हमारा शरीर प्रचण्ड तेजस्विता से देदीप्यमान हो । हे (रोदसी) = द्यावापृथिवी ! आन (नः) = हमारे लिये (सदम्) = सदा (यह्वी नारी न) = अपने गुणों के कारण महत्त्वपूर्ण स्त्री के समान होवो। जैसे पत्नी पति का पूरण करनेवाली बनती है, उसी प्रकार ये द्यावापृथिवी हमारा पूरण करनेवाले हों । द्युलोक ज्ञान की कमी को न रहने दे तथा पृथिवीलोक शक्ति व दृढ़ता का पूरण करनेवाला हो। [२] हे द्यावापृथिवी! आप (तेभिः) = उन मस्तिष्क की ज्ञानदीप्तियों से (नः) = हमें (सह्यसः) = कुचल डालनेवाले काम-क्रोधादि शत्रुओं से (पातम्) = सुरक्षित करो। ज्ञानाग्नि में काम भस्म हो जाए तथा (एभिः) = इन शरीर की शक्तियों से (नः) = हमें शूषणि बाह्य शत्रुओं के शोषण में (पातम्) = सुरक्षित करिये । हम इन पार्थिव शक्तियों से शत्रुओं का शोषण कर सकें। अध्यात्म शत्रुओं का नाश मस्तिष्क के ज्ञान द्वारा तथा बाह्य शत्रुओं का नाश शारीरिक शक्तियों के द्वारा हम करनेवाले बनें । अध्यात्म शत्रुओं के नाश से परलोक उत्तम होता है । बाह्य शत्रुओं के नाश से इहलोक अच्छा बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ज्ञान से कामादि का तथा तेज से बाह्य शत्रुओं का हम विनाश करनेवाले हों ।
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ब्रह्ममुनि

अस्मिन् सूक्तेऽध्यापकोपदेशकाभ्यां ज्ञानं ग्राह्यं परमात्मन उपासना च कार्या, अग्निहोत्रं च स्वास्थ्यलाभाय कर्तव्यमित्यादयो विषयाः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यावापृथिवी महि) यज्ञकरणात्-आकाशभूमी महत्त्वपूर्णे “द्यावापृथिवी आकाशभूमी” [यजु० १५।५७ दयानन्दः] (भूतम्) भवतः यज्ञादाकाशो मेघपूर्णो भवति भूमिश्च वृष्टिरूपयज्ञफलेन शस्यपूर्णा भवति, तस्मात् (उर्वी नारी) स्वस्वरूपतो विस्तृते सत्यौ प्राणिनां जीवनस्य नेत्र्यौ च स्तः (यह्वी रोदसी) रोधसी “रोदसी रोधसी” [निरु० ६।१] “रोधः कूलं निरुणद्धि स्रोतः” [निरु० ६।१] तद्वत्यौ नद्याविव “यह्व्यो नद्यः” [निघ० १।१३] (नः सदम्) अस्मभ्यं सुखं वाहिन्यौ सदा भवतः (तेभिः-नः पातम्) तैः-स्वस्वपालकपदार्थैर्मेघैरन्नादिभिश्च सदाऽस्मान् रक्षतः (शूषणि) उत्पन्ने संसारे “शूष प्रसवे” [भ्वादि०] ततः कनिन् औणादिकः “पूषन् इति यथा शूषन् शब्दसाम्यात्” (नः-एभिः सह्यसः-पातम्) अस्मान् एतैः पालकपदार्थैः-अत्यन्ताभिभावितू रोगादेः-पातः ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the great earth and high heaven be vaster and greater, and always waxing and rising for us, may they like mothers help us rise and grow. May they, stronger and more prosperous, promote us by those heavenly gifts of light and rain. May they, ever stronger, amiable, procreative and productive, help us grow with these gifts of rain and food.