ज्ञान के अनुसार मार्ग पर चलना [ आगमदीपदृष्ट पथ में प्रवृत्ति ]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु अंगिरा हैं 'अगि गतौ 'सम्पूर्ण गति का स्रोत हैं। ये प्रभु सृष्टि से पूर्व होने के कारण 'पूर्व: अंगिराः ' कहे गये हैं । प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में ये 'अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिराः ' आदि मानस पुत्रों को जन्म देते हैं और उन्हें वेद के द्वारा सब पदार्थों का ठीक से ज्ञान दे देते हैं । (अत्र) = इस सृष्टि में (पूर्व: अंगिराः) = सृष्टि से पहले ही विद्यमान गति के स्रोत प्रभु (जनुषा) = जन्म से ही, जन्म के साथ ही (रेभत्) = वेद के शब्दों द्वारा सब पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कराते हैं ज्ञान के बिना इन पदार्थों के ठीक प्रयोग का संभव ही नहीं है । [२] (ऊर्ध्वा:) = ज्ञान के दृष्टिकोण से उच्च स्थिति में पहुँचनेवाले (ग्रावाणः) = स्तोता लोग (अध्वरम्) = उस हिंसा से ऊपर उठे हुए यज्ञरूप प्रभु को (अभिचक्षुः) = देखनेवाले होते हैं। ये स्तोता वे हैं (येभिः) = जिनसे (विचक्षणः) = वे सर्वद्रष्टा प्रभु (विहायाः) = आकाशवत् व्यापक व महान् (अभवत्) = होते हैं। जितना प्रभु की महिमा का गायन होता है, उतना ही प्रभु विस्तृत और विस्तृत होते जाते हैं । [३] यह प्रभु का स्तवन करनेवाला 'स्व-दिति:'=आत्मतत्त्व का धारण करनेवाला ज्ञानी (सुमेकं पाथः) = जिन जीवन का शोभन रूप में निर्माण करनेवाले मार्ग का (वनन्वति) = सेवन करता है, शुभ मार्ग पर चलता हुआ जीवन को उत्तम बनाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में ही सब पदार्थों का ज्ञान देते हैं। उस ज्ञान के अनुसार शुभ मार्ग पर चलता हुआ व्यक्ति सदा कल्याण को सिद्ध करता है । सम्पूर्ण सूक्त का मुख्य भाव यही है कि विचारशील बनकर वासनाओं का संहार करते हुए शुभ मार्ग पर ही चलना है। ऐसा ही व्यक्ति तान्वः = [तनु विस्तारे] अपनी शक्तियों का विस्तार करता है, इसी कारण वह 'पार्थ्यः' कहलाता है [ प्रथविस्तारे] पृथा का पुत्र । यह 'तान्व पार्थ्य' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह कहता है कि-