देवस्तवन द्वारा प्रभु स्तवन
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार आत्मा की ओर चलनेवाली, अतएव (आसाम्) = इन (अभयानाम्) = निर्भय दैवी सम्पत्ति का प्रारम्भ 'अभय' से ही होता है। दैवी सम्पत्ति को अपने में बढ़ाकर ही तो हम प्रभु को अपने में आमन्त्रित करपाते हैं। (विशाम्) = प्रजाओं के (अधिक्षितम्) = अन्दर निवास करनेवाले, (उ) = और (स्वयशसम्) = अपने सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति आदि कर्मों से यशस्वी प्रभु को (गीर्भिः) = इन वेदवाणियों से (गृणीमसि) = स्तुत करते हैं । सब से पूर्व हम प्रभु का ही आराधन करते हैं। प्रभु की आराधना ही मनुष्य को निर्भय बनाती है । [२] इसके बाद, (विश्वभिः) = सब (ग्ग्राभिः) = देव-पत्नियों के साथ (अदितिम्) = उस प्रकृतिरूप अदीना देवमाता को हम [गृणीमसि ] स्तुत करते हैं । प्रकृति से बननेवाले ये सूर्य, जल, पृथिवी, वायु आदि सब देव अपनी-अपनी शक्ति से युक्त हैं। ये शक्तियाँ ही उन देवों की 'पत्नी' कहलाती हैं। इन सबके साथ हम इस प्रकृति का स्तवन करते हैं। इनके गुणों का ज्ञान ही इन देवों का स्तवन होता है । [३] (अनर्वणम्) = इस ओषधियों में रस सञ्चार के द्वारा हमें हिंसित न होने देनेवाले (अक्तोः युवानम्) = रात्रि के साथ अपना मेल करनेवाले चन्द्रमा को हम स्तुत करते हैं । इस चन्द्रमा में प्रभु की महिमा को देखते हैं (नृमणा:) = [नृषु अनुग्राहकं मन्ते यस्य] मनुष्यों पर अनुग्राहक मनवाला जो आदित्य है उस आदित्य का हम स्तवन करते हैं। किस प्रकार उदय होकर यह सब में प्राणों का संचार करता है ? [४] (अधा) = और अब इन सब देवों के स्तवन के साथ (पतिम्) = इन सब देवों के स्वामी प्रभु का स्तवन करते हैं । इन देवों के स्तवन से वस्तुतः प्रभु का ही स्तवन होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु का, प्रभु की पत्नीरूप इस प्रकृति का, सब देवों का व देवों द्वारा फिर से प्रभु का स्तवन करते हैं।