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तमोष॑धीर्दधिरे॒ गर्भ॑मृ॒त्वियं॒ तमापो॑ अ॒ग्निं ज॑नयन्त मा॒तर॑: । तमित्स॑मा॒नं व॒निन॑श्च वी॒रुधो॒ऽन्तर्व॑तीश्च॒ सुव॑ते च वि॒श्वहा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam oṣadhīr dadhire garbham ṛtviyaṁ tam āpo agniṁ janayanta mātaraḥ | tam it samānaṁ vaninaś ca vīrudho ntarvatīś ca suvate ca viśvahā ||

पद पाठ

तम् । ओष॑धीः । द॒धि॒रे॒ । गर्भ॑म् । ऋ॒त्विय॑म् । तम् । आपः॑ । अ॒ग्निम् । ज॒न॒य॒न्त॒ । मा॒तरः॑ । तम् । इत् । स॒मा॒नम् । व॒निनः॑ । च॒ । वी॒रुधः॑ । अ॒न्तःऽव॑तीः । च॒ । सुव॑ते । च॒ । वि॒श्वहा॑ ॥ १०.९१.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:91» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्-अग्निम्) उस अग्रणायक परमात्मा को या भौतिक अग्नि को (ओषधीः) दोषों को समाप्त करनेवाले विद्वान् जन अथवा गेहूँ आदि ओषधियाँ (ऋत्वियम्) यथासमय (गर्भं दधिरे) अपने अन्दर परमात्मा को धारण करते हैं या अपने अन्दर जाठर अग्नि को धारण करते हैं (तम्-आपः-मातरः-जनयन्त) उस परमात्मा को या  अग्नि को आप्तजन मान करनेवाले या व्याप्त जलप्रवाह निर्माण करनेवाले अपने अन्दर प्रकट करते हैं (तं समानम्-इत्) उस समानभाव से (वनिनः-वीरुधः) वनवासी वानप्रस्थ विरक्तजन या वन में होनेवाले वनस्पति वृक्ष विशेषतः रोहणशील युवाजन ब्रह्मचारी तथा लताएँ (अन्तर्वतीः) गर्भिणियों के समान (विश्वहा सुवते) सदा सन्तान अथवा अन्न को प्रकट करती हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा को आप्त संन्यासी जन, वानप्रस्थ और ब्रह्मचारी विशेषरूप से अपने अन्दर धारण किया करते हैं, गृहस्थ जन भी यथासमय धारण करते हैं। उसकी कृपा से गर्भवती सन्तान को जन्म देती है एवं भौतिक अग्नि को अपने अन्दर जलप्रवाह वृक्षादि वनस्पतियाँ बढ़नेवाली लताएँ धारण करती हैं और अन्न को उत्पन्न करती हैं ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ओषधि- आपः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु को यहाँ 'गर्भं ऋत्वियम्' [क्रतु=light, splendous ] 'प्रकाशमय गर्भ' कहा है, यही भाव 'हिरण्यगर्भ' शब्द से भी व्यक्त होता है । सब ज्योतिर्मय पदार्थ उस प्रभु के गर्भ में हैं, सो प्रभु 'ऋत्विय-प्रकाशमय - गर्भ' हैं। (तम्) = उस (ऋत्वियं गर्भम्) = प्रकाशमय गर्भ को, उस हिरण्यगर्भ को (ओषधीः) = ओषधियाँ (दधिरे) = धारण करती हैं । अर्थात् ओषधियों वनस्पतियों के भोजन से सात्त्विक बुद्धिवाला पुरुष ही हृदय में प्रभु को धारण करनेवाला बनता है । [२] (तम् अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को (मातरः आपः) = मातृवत् हित करनेवाले जल (जनयन्त) = प्रादुर्भूत करते हैं । इन जलों के प्रयोग से निर्मल व शुद्ध हृदय में प्रभु का सक्षात्कार होता है। 'सादा खाना, पानी पीना' यह सात्विकता का कारण बनता है और इस सात्विकता के कारण हम प्रभु का दर्शन करते हैं । [३] (तम्) = उस (समानम्) = [सम्यक् आनयति] सम्यक् प्राणित करनेवाले प्रभु को (वनिनः) = वन में होनेवाली (वीरुधः) = ये लताएँ (इत्) = ही (सुवते) = जन्म देती हैं, प्रादुर्भूत करती हैं । (च) = और (विश्वहा) = सदा (अन्तर्वतीः) = फल-बीजों को धारण करनेवाली लताएँ [सुवते ] = उस प्रभु को हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत करती हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु - दर्शन के लिये वानस्पतिक भोजन व जल का ही प्रयोग आवश्यक है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्-अग्निम्) तं परमात्मानं यद्वाऽग्निं (ओषधीः-ऋत्वियं गर्भं दधिरे) दोषधयनशीला विद्वांसः-गोधूमादयो वा यथासमयं मध्ये वर्तमानं परमात्मानमग्निं वा धारयन्ति (तम्-आपः-मातरः-जनयन्त) तं परमात्मानं यद्वाऽग्निं खल्वाप्ता जनाः मानकर्त्तारो व्याप्ता जलप्रवाहाश्च मातृभूताः स्वाभ्यन्तरे प्रादुर्भावयन्ति (तं समानम्-इत्) तमेव समानभावेन (वनिनः-वीरुधः) वनवासिनो वानप्रस्था विरक्ताः, वने भवा वनस्पतयो वा तथा विशेषेण रोहणशीला युवानो ब्रह्मचारिणः, यद्वा लताश्च (अन्तर्वतीः) गर्भिण्य इव (विश्वहा सुवते) सर्वदा उद्भावयन्ति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - That Agni, energy, the herbs and waters receive into them and they bear it as mothers, producing it on maturity as nourishment and energy for life forms. The same Agni, the herbs and trees of the forest receive equally, hold it in the womb and always produce it as the embodiment of energy.