पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु को यहाँ 'गर्भं ऋत्वियम्' [क्रतु=light, splendous ] 'प्रकाशमय गर्भ' कहा है, यही भाव 'हिरण्यगर्भ' शब्द से भी व्यक्त होता है । सब ज्योतिर्मय पदार्थ उस प्रभु के गर्भ में हैं, सो प्रभु 'ऋत्विय-प्रकाशमय - गर्भ' हैं। (तम्) = उस (ऋत्वियं गर्भम्) = प्रकाशमय गर्भ को, उस हिरण्यगर्भ को (ओषधीः) = ओषधियाँ (दधिरे) = धारण करती हैं । अर्थात् ओषधियों वनस्पतियों के भोजन से सात्त्विक बुद्धिवाला पुरुष ही हृदय में प्रभु को धारण करनेवाला बनता है । [२] (तम् अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को (मातरः आपः) = मातृवत् हित करनेवाले जल (जनयन्त) = प्रादुर्भूत करते हैं । इन जलों के प्रयोग से निर्मल व शुद्ध हृदय में प्रभु का सक्षात्कार होता है। 'सादा खाना, पानी पीना' यह सात्विकता का कारण बनता है और इस सात्विकता के कारण हम प्रभु का दर्शन करते हैं । [३] (तम्) = उस (समानम्) = [सम्यक् आनयति] सम्यक् प्राणित करनेवाले प्रभु को (वनिनः) = वन में होनेवाली (वीरुधः) = ये लताएँ (इत्) = ही (सुवते) = जन्म देती हैं, प्रादुर्भूत करती हैं । (च) = और (विश्वहा) = सदा (अन्तर्वतीः) = फल-बीजों को धारण करनेवाली लताएँ [सुवते ] = उस प्रभु को हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत करती हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु - दर्शन के लिये वानस्पतिक भोजन व जल का ही प्रयोग आवश्यक है ।