पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे अग्ने! (तव) = आपकी (श्रियः) = शोभाएँ (वर्ष्यस्य) = वृष्टि करनेवाले मेघ की (विद्युतः इव) = विद्युतों के समान (चित्राः) = अद्भुत (चिकित्रे) = जानी जाती हैं। आपकी शोभाएँ (उषसां केतवः न) = उषा की रश्मियों के समान हैं। जैसे विद्युत् में छेदन-भेदन शक्ति है इसी प्रकार प्रभु की उपस्थिति सब वासनाओं को छिन्न कर देती है । जैसे उषा के प्रकाश की किरणें अन्धकार को दूर कर देती हैं, उसी प्रकार प्रभु की उपस्थिति अज्ञानान्धकार को भगा देती है । [२] इस प्रभु की उपस्थिति हमारे हृदयों में होती कब है ? (यद्) = जब, हे उपासक ! तू (ओषधीः अभि) = ओषधियों की ओर (सृष्ट:) = प्रेरित [send forth ] होता है, अर्थात् ओषधियाँ ही तेरा भक्ष्य होती हैं, (च) = और (वनानि) [अभिसृष्ट:] = [वनं= water] पानी की ओर प्रेरित होता है, पानी ही तेरा पेय बनता है। तू स्वयं = आप ही आस्ये मुख में (अन्नं परिचिनुषे) = अन्न का ही परिचय प्राप्त करता है, अन्न को ही खाता है, उसी को स्वाद को जानता है । वस्तुतः प्रभु प्राप्ति के लिये 'सादे वानस्पतिक भोजन व पानी का ही ग्रहण' करना आवश्यक है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु दर्शन के लिए सात्त्विक आहार के द्वारा बुद्धि का सात्त्विक बनाना आवश्यक है ।