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प्र॒जा॒नन्न॑ग्ने॒ तव॒ योनि॑मृ॒त्विय॒मिळा॑यास्प॒दे घृ॒तव॑न्त॒मास॑दः । आ ते॑ चिकित्र उ॒षसा॑मि॒वेत॑योऽरे॒पस॒: सूर्य॑स्येव र॒श्मय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prajānann agne tava yonim ṛtviyam iḻāyās pade ghṛtavantam āsadaḥ | ā te cikitra uṣasām ivetayo repasaḥ sūryasyeva raśmayaḥ ||

पद पाठ

प्र॒ऽजा॒नन् । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । योनि॑म् । ऋ॒त्विय॑म् । इळा॑याः । प॒दे । घृ॒तऽव॑न्तम् । आ । अ॒स॒दः॒ । आ । ते॒ । चि॒कि॒त्रे॒ । उ॒षसा॑म्ऽइ॒व । एत॑यः । अ॒रे॒पसः॑ । सूर्य॑स्यऽइव । र॒श्मयः॑ ॥ १०.९१.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:91» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (इळायाः-पदे) स्तुति के प्रसङ्ग में (तव) तेरे अपने (ऋत्वियं-योनिम्) यथासमय स्तोता के हृदयरूप घर (घृतवन्तम्) आर्द्र हावभाववाले को (प्रजानन्) भलीभाँति जानता हुआ (आसदः) प्राप्त हो (ते एतयः) तेरे प्राप्त होने की प्रतीतियाँ (उषसाम्-इव) उषाओं के समान (सूर्यस्य-अरेपसः-रश्मयः-इव) सूर्य की निर्दोष किरणों के समान (आ चिकित्रे) प्रतीत होती हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जब परमात्मा की कोई स्तोता आर्द्र हावभाव भरे हृदय में स्तुति करता है, तो उषाओं के समान या सूर्यकिरणों के समान उसकी प्रतीतियाँ-दर्शन आभाएँ प्रतीत होने लगती हैं ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु का निवास कहाँ ?

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्ने) = हे अग्रेणी प्रभो ! (प्रजानन्) = प्रकृष्टरूप से ज्ञानवाले होते हुए आप (तव योनिम्) = अपने निवासभूत [योनि=गृह] (ऋत्वियम्) = [ऋतु - light, splendine] प्रकाशमय और (इडायाः पदे) = वेदवाणी के आधार में (घृतवन्तम्) = मलों के क्षरण व ज्ञान की दीप्तिवाले हृदयदेश में (आसद:) = आसीन होते हो। एक उपासक का निर्मल हृदय ही आपका निवास-स्थान है। वह हृदय जो प्रकाशमय है और वेदवाणी को अध्ययन से निर्मल व ज्ञानदीप्त बना है। [२] हे प्रभो! (ते) = आपकी (एतयः) = प्राप्तियाँ [एति :- arrinal] (उषसां इव) = उषाओं के आगमनों की तरह (आचिकित्रे) = जानी जाती हैं। जिस प्रकार उषा के आने पर सदा अन्धकार दग्ध हो जाता है [उष दाहे ] इसी प्रकार हृदय में प्रभु के आसीन होने पर वासनाओं का सब अन्धकार समाप्त हो जाता है। [३] हे प्रभो ! आपके आगमन (अरेपस:) = सब दोषों को दूर करनेवाली (सूर्यस्य रश्मयः इव) = सूर्य की किरणों के समान हैं। जैसे सूर्य की किरणें सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करती हैं उसी प्रकार हृदय में प्रभु की प्राप्ति से शक्ति का अनुभव होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु का वास निर्मल व ज्ञानदीप्त हृदयों में होता है। यह प्रभु का वास सब वासनान्धकार को विनष्ट कर देता है और हमारे जीवनों में प्राणशक्ति का संचार करता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (इळायाः-पदे) स्तुतिवाचः पदे प्राप्तव्ये प्रसङ्गे (तव-ऋत्वियं योनिम्) स्वकीयं यथासमयं गृहं स्तोतृहृदयम् “योनिः गृहनाम” [निघं० ३।४] (घृतवन्तम्) आर्द्रहावभाववन्तम् (प्रजानन्) प्रकृष्टं जानन् सन् (आ असदः) आसीद (ते-एतयः) तव प्रापणप्रतीतयः (उषसाम्-इव) उषसः-इव “व्यत्ययेन प्रथमास्थाने षष्ठी छान्दसी” (सूर्यस्य-अरेपसः-रश्मयः-इव-आ चिकित्रे) सूर्यस्य निर्दोषाः प्रकाशमाना रश्मय इव प्रतीयन्ते ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, lighted and refulgent, come and take your holy seat in the vedi prepared and sprinkled with ghrta according to the season on the floor of the yajnic earth. The light and flames of your arrival shine and appear like rise of the dawns, like rays of the sun, pure, immaculate, beatific.