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स द॑र्शत॒श्रीरति॑थिर्गृ॒हेगृ॑हे॒ वने॑वने शिश्रिये तक्व॒वीरि॑व । जनं॑जनं॒ जन्यो॒ नाति॑ मन्यते॒ विश॒ आ क्षे॑ति वि॒श्यो॒३॒॑ विशं॑विशम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa darśataśrīr atithir gṛhe-gṛhe vane-vane śiśriye takvavīr iva | janaṁ-janaṁ janyo nāti manyate viśa ā kṣeti viśyo viśaṁ-viśam ||

पद पाठ

सः । द॒र्श॒त॒ऽश्रीः । अति॑थिः । गृ॒हेऽगृ॑हे । वने॑ऽवने । शि॒श्र॒िये॒ । त॒क्व॒वीःऽइ॑व । जन॑म्ऽजनम् । जन्यः॑ । न । अति॑ । म॒न्य॒ते॒ । विशः॑ । आ । क्षे॒ति॒ । वि॒श्यः॑ । विश॑म्ऽविशम् ॥ १०.९१.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:91» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह परमात्मा (दर्शतश्रीः) दर्शनीय शोभावाला (अतिथिः) पूजनीय (गृहे गृहे) प्रत्येक मनुष्य के हृदय घर में (वने वने) भलीभाँति भजन के साधन अन्तःकरण में (शिश्रिये) रहता है (तक्ववीः-इव) गतिशील वायु को प्राप्त होनेवाले आकाश के सामन (जनं जनं जन्यः) जन-जन के प्रति जनहित (न अति-मन्यते) किसी से उपेक्षा नहीं  करता है, उदारता बरतता  है, (विशः-आ क्षेति) प्रजाओं के प्रति-प्रजाओं के अन्दर निवास करता है (विशं विशं विश्यः) प्रत्येक प्रजा का प्रजाहितैषी परमात्मा स्तुति करने योग्य है ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा दर्शनीय शोभावाला प्रत्येक के हृदय में और अन्तःकरण में रहता है, वह आकाश के समान व्यापक जनमात्र का हितैषी प्राणिमात्र का कल्याणकारी उदार है, उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

दर्शतश्रीः 'प्रभु'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (स) = वे प्रभु (दर्शतश्री:) = दर्शनीय शोभावाले हैं, हिमाच्छादित पर्वतों में, समुद्रों में, पृथिवी में सर्वत्र प्रभु की महिमा का दर्शन होता है । वे प्रभु (गृहे गृहे) = प्रत्येक घर में (अतिथिः) = [अत सातत्यगमने] निरन्तर आनेवाले हैं । यह हमारा ही दोष है कि हम उस प्रभु का स्वागत करने को तैयार नहीं होते । [२] [तक्वन् = rushing forwald, श्री गतौ] वे प्रभु (तक्कीः इव) = तीव्रगति से आनेवाले की तरह (वने वने) = [वन= संभक्तौ] प्रत्येक उपासक में (शिश्रिये) = आश्रय करते हैं, प्रत्येक उपासक में प्रभु का निवास है । [३] (जन्यः) = सब लोगों का हित करनेवाला वह प्रभु (जनं जनम्) = किसी भी मनुष्य को (न अतिमन्यते) = [विसृज्य न गच्छति सा०] छोड़ नहीं जाता। उस प्रभु की कृपादृष्टि सब पर रहती है । [४] (विश्यः) = सब प्रजाओं का हित करनेवाला वह प्रभु (विशः आक्षेति) = समन्तात् सब प्रजाओं में निवास करता है। वे प्रभु विशं विशं [आक्षेति ] प्रत्येक प्रजावर्ग को शासित करते हैं। प्रभु के शासन का उल्लंघन न कर सकने से सब प्रजाएँ कर्मानुसार दिये दण्ड को भोगती हुई विविध योनियों में जन्म लेती हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-संसार में सर्वत्र प्रभु की महिमा दिखती है। वे प्रभु सब प्राणियों में निवास करते हैं, सबका शासन करते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) स परमात्मा (दर्शतश्रीः) दर्शनीयशोभावान् (अतिथिः) पूज्यः “अतिथिः पूजनीयः” [ऋ० १।१२८।४-दयानन्दः] (गृहे गृहे वने वने शिश्रिये) प्रत्येकजनस्य हृद्गृहे सम्भजनसाधनेऽन्तःकरणे श्रितोऽस्ति (तक्ववीः-इव) तकति-गच्छतीति तक्वा वायुः “तकति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] तक्वानं गतिमन्तं वायुं व्याप्नोतीति तक्ववीः-आकाशः, आकाश इव सर्वव्यापकः (जनं जनं जन्यः) जनं जनं प्रति जनहितः (न-अति मन्यते) न हि स उपेक्षते (विशः-आ क्षेति) प्रजाः प्रति निवसति (विशं विशं विश्यः) विशं विशं प्रति प्रजां प्रजां प्रति प्रजाहितः स परमात्मा स्तोतव्यः ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Commanding excellent grace and grandeur, honoured like a holy guest, it abides in every home and every forest like a flying bird. Lover of humanity, it blesses every community, ignores none, scorns none, loves every class of people and lives with all classes and communities with equal love and favour.