पदार्थान्वयभाषाः - [१] (स) = वे प्रभु (दर्शतश्री:) = दर्शनीय शोभावाले हैं, हिमाच्छादित पर्वतों में, समुद्रों में, पृथिवी में सर्वत्र प्रभु की महिमा का दर्शन होता है । वे प्रभु (गृहे गृहे) = प्रत्येक घर में (अतिथिः) = [अत सातत्यगमने] निरन्तर आनेवाले हैं । यह हमारा ही दोष है कि हम उस प्रभु का स्वागत करने को तैयार नहीं होते । [२] [तक्वन् = rushing forwald, श्री गतौ] वे प्रभु (तक्कीः इव) = तीव्रगति से आनेवाले की तरह (वने वने) = [वन= संभक्तौ] प्रत्येक उपासक में (शिश्रिये) = आश्रय करते हैं, प्रत्येक उपासक में प्रभु का निवास है । [३] (जन्यः) = सब लोगों का हित करनेवाला वह प्रभु (जनं जनम्) = किसी भी मनुष्य को (न अतिमन्यते) = [विसृज्य न गच्छति सा०] छोड़ नहीं जाता। उस प्रभु की कृपादृष्टि सब पर रहती है । [४] (विश्यः) = सब प्रजाओं का हित करनेवाला वह प्रभु (विशः आक्षेति) = समन्तात् सब प्रजाओं में निवास करता है। वे प्रभु विशं विशं [आक्षेति ] प्रत्येक प्रजावर्ग को शासित करते हैं। प्रभु के शासन का उल्लंघन न कर सकने से सब प्रजाएँ कर्मानुसार दिये दण्ड को भोगती हुई विविध योनियों में जन्म लेती हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-संसार में सर्वत्र प्रभु की महिमा दिखती है। वे प्रभु सब प्राणियों में निवास करते हैं, सबका शासन करते हैं।