पदार्थान्वयभाषाः - [१] (तस्मात्) = उस (यज्ञात्) = संगतिकरण योग्य, (सर्वहुत:) = सब कुछ देनेवाले प्रभु से (पृषदाज्यम्) = ['अन्नं वै पृषदाज्यम्' 'पयः पृषदाज्यम्' श० ३ । ८ । ४ । ८ । 'पशवो वै पृषदाज्यम्' तै० १ । ६ । ३ ।] [२] अन्न, दूध व पशु सम्भृतम् इन सबका सम्भरण किया गया। प्रभु ने हमारे जीवन के लिए गौ आदि पशुओं को बनाया जिनके द्वारा हमें दूध प्राप्त हुआ तथा कृषि आदि के द्वारा अन्न के मिलने का सम्भव हुआ। [२] प्रभु ने (तान्) = उन सब पशून् चक्रे पशुओं का निर्माण किया । (वायव्यान्) = जो वायु में उड़नेवाले थे, (आरण्यान्) वनों में रहनेवाले थे (च) = और (ये) = जो (ग्राम्याः) = ग्राम में पालतू पशुओं के रूप में रहनेवाले थे। [३] यहाँ मनुष्यों से भिन्न सभी प्राणियों को 'पशु' शब्द से स्मरण किया है, ये 'पश्यन्ति' केवल देखते हैं, मनुष्य की तरह मनन नहीं कर पाते । ये सब मनुष्य के जीवन में किसी न किसी रूप में सहायक होते हैं। सर्प विष का भी औषधरूपेण प्रयोग होता है, मस्तिष्क का बल भी वमन विरोध में काम आता है। ज्ञानवृद्धि के साथ हम इसी परिणाम पर पहुँचेंगे कि ये सब पशु हमारे लिए सहायक हैं। प्रभु की कृपा का अन्त नहीं। वे सर्वहुत् हैं, सब कुछ देनेवाले हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु ने हमारे जीवन के धारण के लिए दूध, अन्न, व पशुओं को प्राप्त कराया है। ये पशु दूध आदि देकर व कृषि आदि कार्यों में सहायक होकर, हमारे लिए उपयोगी होते हैं ।