पदार्थान्वयभाषाः - [१] (तम्) = उस (यज्ञम्) = उपासनीय संगतिकरण योग्य व समर्पणीय प्रभु को (बर्हिषि) = वासनाओं का जिसमें से उद्धर्हण कर दिया गया है ऐसे हृदय में (प्रौक्षन्) = प्रकर्षेण सिक्त करते हैं । हृदयरूप क्षेत्र को प्रभु - चिन्तनरूप जल से सिक्त करते हैं । [२] उस प्रभु को जो (पुरुषम्) = इस ब्रह्माण्डरूप पुरी में निवास करनेवाले हैं। और जो (अग्रतः जातम्) = पहले से ही विद्यमान हैं। 'उन प्रभु को किसी ने बनाया हों, ऐसी बात नहीं है, ' वे तो अनादि व स्वयम्भू हैं। [३] (तेन) = उस प्रभु से (अयजन्त) = वे व्यक्ति अपना मेल करते हैं (ये) = जो (देवा:) = देववृत्ति के हैं, जिनके मन दिव्यगुणों की सम्पत्तिवाले हैं। (साध्याः) [ साध्नुवन्ति परकार्याणि] = जो सदा औरों के कार्यों को सिद्ध ही करते हैं, बिगाड़ते नहीं । च और जो (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु की प्राप्ति देवों को, साध्यों को व वृषियों को होती है, उन्हें जो 'उपासना, कर्म व ज्ञान' तीनों का अपने में समन्वय करते हैं।