पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु यज्ञ हैं, पूज्य हैं, संगतिकरण योग्य हैं और समर्पणीय हैं। 'बड़ों का आदर करना, बराबरवालों से मिलकर प्रेम से चलना तथा देना' यह त्रिविध कर्म यज्ञ है। (यज्ञेन) = इस 'बड़ों के आदर, परस्पर प्रेम व दान' रूप यज्ञात्मक कर्म से (यज्ञ) उस उपास्य प्रभु को (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (अयजन्त) = उपासित करते हैं। प्रभु की उपासना यज्ञान्तर्गत इन्हीं तीन कर्मों से होती है । वस्तुतः (तानि) = वे तीन कर्म ही (प्रथमानि धर्माणि आसन्) = मनुष्य के प्रमुख कर्त्तव्य [first and foremost duties] थे। [२] इन कर्मों के द्वारा (महिमानः) = [मह पूजायाम्] प्रभु-पूजन करनेवाले (नाकम्) = उस सुखमय मोक्ष लोक का (सचन्त) = सेवन करते हैं, (यत्र) = जहाँ जिस मोक्षलोक में वे व्यक्ति (सन्ति) = निवास करते हैं जो (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले हैं, (साध्याः) = [ साधयन्ति परकार्याणि] दूसरों के कार्यों को सिद्ध करनेवाले हैं, तथा (देवाः) = सदा काम-क्रोधादि को जीतने की कामना करते हैं [विजिगीषा - दिव्] और ज्योतिर्मय जीवन बिताते हैं [द्युति- दिव्] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-प्रभु का उपासन यज्ञ से होता है, यज्ञ ही प्रमुख कर्त्तव्य है, प्रभु-पूजक मोक्ष को प्राप्त करता है । मोक्ष को प्राप्त करके 'नारायण' सा ही हो जाता है। इस पुरुष सूक्त का निचोड़ यही है कि प्रभु अनन्त ज्ञानवाले हैं उस ज्ञान से वे इस सुन्दर सृष्टि का निर्माण करते हैं। हम प्रभु को धारण करते हुए एक-एक अंग को शक्तिशाली बनाएँ । सदा यज्ञों द्वारा उस प्रभु का उपासन करते हुए हम भी प्रभु जैसे बन जाएँ । यज्ञों द्वारा प्रभु का उपासन करनेवाला यह 'वीतं हव्यं येन'- यज्ञशेष का सेवन करनेवाला 'वैतहव्य' बनता है तथा अरुण:- तेजस्विता की लालिमावाला होता है। अगले सूक्त का यही ऋषि है। यह 'अग्नि' नाम से प्रभु को याद करता है- -