'अन्तरिक्ष- द्यौः - भूमिः - दिशः '
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (नाभ्याः) = नाभि शरीर का केन्द्र है, इस नाभि के दृष्टिकोण से (अन्तरिक्षं आसीत्) = यह अन्तरिक्ष होता है 'द्युलोक' एक सीमा है, 'पृथिवी' दूसरी सीमा है । 'अन्तरिक्ष ' इनके [अन्तराक्षि] बीच में है। यह प्रभु-भक्त सीमाओं पर न जाता हुआ सदा मध्य में रहता है। यह मध्य मार्ग ही इसके शरीर के केन्द्र को ठीक रखकर इसे पूर्ण स्वस्थ बनाता है । [२] (शीर्ष्णः) = सिर व मस्तिष्क के दृष्टिकोण से यह (द्यौः) = आकाश समवर्तत हो जाता है जैसे द्युलोक नक्षत्रों से चमकता है, इसी प्रकार इसका मस्तिष्क विज्ञान के नक्षत्रों से चमकता है। जैसे द्युलोक सूर्य ज्योति से देदीप्यमान है, इसी प्रकार इसका मस्तिष्क आत्मज्ञान के सूर्य से चमकता है । [३] यह (पद्भ्याम्) = पाँवों के दृष्टिकोण से (भूमि:) = भूमि बनता है । 'भवन्ति भूतानि यस्यां ' इस व्युत्पर्त्ति से भूमि सभी को निवास देनेवाली है। इसकी 'पद गतौ' पाँव से होनेवाली सारी गति औरों के निवास का ही कारण बनती है । [४] यह (श्रोत्रात्) = श्रोत्र के दृष्टिकोण से 'दिश: 'दिशाएँ ही हो जाता है। 'प्राची प्रतीची- अवाची-उदीची' ये चार दिशाएँ हैं। यह कानों से इनके उपदेश को सुनता है और 'प्राची' के उपदेश को सुनकर [प्र अञ्च्] आगे बढ़ता है, 'प्रतीची' से [प्रति अञ्च् ] इन्द्रियों के प्रत्याहरण का पाठ पढ़ता है, अवाची [अव अञ्च्] से नम्रता का पाठ पढ़ता है और उदीची से [उद् अञ्च्] सदा उन्नति का उपदेश लेता है । ये प्रभु-भक्त तथा मन्त्र वर्णित प्रकार से आचरण करते हुए (लोकान्) = शरीर के अंग-प्रत्यंगों को (अकल्पयन्) = शक्तिशाली बनाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु-भक्त मध्य मार्ग में चलते हैं, मस्तिष्क को प्रकाशमय बनाते हैं। इनकी गति औरों के निवास का कारण बनती है तथा ये दिशाओं से उपदेश को ग्रहण करके आगे बढ़ते हैं, इन्द्रियों को प्रत्याहृत करते हैं, नम्रता को धारण करते हैं और सदा उन्नति के मार्ग पर चलते हैं ।