'अन्धकार के निवारक' प्रभु
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के द्वारा प्रभु-दर्शन करनेवाले (देवा:) = दिव्य वृत्तिवाले विद्वान् पुरुष (विश्वस्मा भुवनाय) = सब लोकों के लिये (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु का (अकृण्वन्) = उपदेश करते हैं, जो प्रभु (वैश्वानरम्) = सब प्राणियों का हित करनेवाले हैं और (अह्नाम्) =[अ-हन्] आत्महनन न करनेवालों के केतुम् प्रज्ञपक्व हैं। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के अनुसार आत्महनन न करनेवाले व्यक्ति वे हैं जो कि — [क] प्रभु की सर्वव्यापकता का विचार करते हैं [ईशा वास्यमिदं सर्वम्], [ख] त्यागपूर्वक उपभोग करते हैं [त्यक्तेन भुञ्जीथाः], [ग] लालच नहीं करते [मा गृधः], [घ] धन किसका है ? इस प्रश्न को बारम्बार अपने में पैदा करते हैं [कस्य स्विद्धनम्], [ङ] सदा क्रियाशील होते हैं [कुर्वन्नेवेह कर्माणि] । इन लोगों के लिये वे प्रभु आत्मज्ञान प्राप्त कराते हैं । [२] देव लोग उस आत्मतत्त्व का उपदेश करते हैं (यः) = जो (विभाती: उषसः) = इन देदीप्यमान उषाकालों को (आततान) = विस्तृत करते हैं और (अर्चिषा) = ज्ञान की ज्वालाओं [प्रकाशों] के साथ (यन्) = गति करते हुए (तमः) = अन्धकार को (उ) = निश्चयपूर्वक (अप ऊर्णोति) = दूर करते हैं। जिस प्रकार उषा प्रकाश को लाती है और अन्धकार नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार हृदयस्थ प्रभु का प्रकाश होते ही सम्पूर्ण अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। इस प्रभु का ज्ञान ही हितकर है। इस प्रभु की विश्वव्यापकता का स्मरण हमें मार्ग-भ्रष्ट होने से बचाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उस प्रभु का हमें देवों से ज्ञान प्राप्त हो जो प्रभु की 'अग्नि' हैं, 'वैश्वानर' हैं, अन्धकार को दूर करनेवाले हैं।