यज्ञिय देवों को प्रभु-दर्शन
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यदा) = जब (इत्) = निश्चय से (एनम्) = इस (सूर्यम्) = सबको कर्मों की प्रेरणा देनेवाले, (आदितेयम्) = अदिति के पुत्र को, अर्थात् अदिति स्वास्थ्य [अखण्डन] के द्वारा दर्शनीय अथवा अदीनता व दिव्यगुणों के द्वारा दर्शनीय प्रभु को (यज्ञियासः) = यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में लगे हुए (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश के होने पर (अदधुः) = धारण करते हैं । [२] यहाँ प्रभु को अदिति का पुत्र इसलिए कहा है कि जैसे पुत्र की उत्पत्ति पिता से होती है इसी प्रकार प्रभु का दर्शन अदिति से होता है। अदिति का अर्थ है– [क] स्वास्थ्य तथा [ख] अदीना देवमाता । प्रभु के दर्शन के लिये स्वास्थ्य का ठीक रखना आवश्यक है, साथ ही अदीनतापूर्वक दिव्यगुणों को धारण करना अत्यन्त आवश्यक है। प्रभु का दर्शन यज्ञिय देवों को होता है। उत्तम कर्मों को करना ही यज्ञिय बनना है तथा दैवी सम्पत्ति के वर्धन से हम देव बनते हैं। ये यज्ञिय देव ज्ञान के प्रकाश के होने पर प्रभु-दर्शन कर पाते हैं । एवं हाथों में यज्ञ हों, मन में दैवी वृत्ति हो, मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण हो, तो मनुष्य प्रभु का धारण करनेवाला बनता है। [३] (यदा) = जब (मिथुनौ) = घर में पति-पत्नी शिक्षणालय में शिष्य और आचार्य, राष्ट्र में राजा प्रजा ये दोनों (चरिष्णू) = खूब क्रियाशील होते हैं, आलस्य से शून्य होते हैं, (आत् इत्) = तब ही (विश्वा भुवनानि) = सब लोग (प्रापश्यन्) = उस प्रभु को प्रकर्षेण देखनेवाले बनते हैं। प्रभु-दर्शन की सब से बड़ी योग्यता 'आलस्यशून्यता' ही है। जब सब मिलकर राष्ट्र को अच्छा बनाने का प्रयत्न करते हैं, शिक्षणालय व घर को अच्छा बनाने का प्रयत्न करते हैं, तभी प्रभु दर्शन होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम उत्तम कर्मोंवाले, देववृत्तिवाले व ज्ञान को प्रकाश को प्राप्त करनेवाले बनकर प्रभु-दर्शन के अधिकारी बनें।