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ह॒विष्पान्त॑म॒जरं॑ स्व॒र्विदि॑ दिवि॒स्पृश्याहु॑तं॒ जुष्ट॑म॒ग्नौ । तस्य॒ भर्म॑णे॒ भुव॑नाय दे॒वा धर्म॑णे॒ कं स्व॒धया॑ पप्रथन्त ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

haviṣ pāntam ajaraṁ svarvidi divispṛśy āhutaṁ juṣṭam agnau | tasya bharmaṇe bhuvanāya devā dharmaṇe kaṁ svadhayā paprathanta ||

पद पाठ

ह॒विः । पान्त॑म् । अ॒जर॑म् । स्वः॒ऽविदि॑ । दि॒वि॒ऽस्पृशि॑ । आऽहु॑तम् । जुष्ट॑म् । अ॒ग्नौ । तस्य॑ । भर्म॑णे । भुव॑नाय । दे॒वाः । धर्म॑णे । कम् । स्व॒धया॑ । प॒प्र॒थ॒न्त॒ ॥ १०.८८.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:88» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में सूर्य विद्युत् अग्नि के व्यवहार तथा परमात्मा के ज्ञानप्रसाद लाभ और उसकी उपासना के प्रकार वर्णित हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्विदि) सूर्य को प्राप्त करनेवाले (दिविस्पृशि) आकाश को छूनेवाले (अग्नौ) यज्ञाग्नि में (हविः-पान्तम्) जो खाने-पीने योग्य हव्य (अजरम्) प्रसरणशील (आहुतम्) प्रेरित (जुष्टम्) प्रीत-पसन्द की हुई (तस्य भर्मणे) उसके भरण करने में (भुवनाय) भावन करने के लिये (धर्मणे) धारण करने के लिये (स्वधया) अन्न से (कं पप्रथन्त) सुखकर अग्नि में अग्नि को धरते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - विशेष हवि जो खाने-पीने योग्य आकाश को छूनेवाले, सूर्य को प्राप्त होनेवाले, पहुँचने योग्य को यज्ञाग्नि में होमता है, वह सुख को प्राप्त करता है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सोम का धारण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] शरीर में प्रभु वैश्वानर अग्नि के रूप से रहते हैं। इस वैश्वानर अग्नि में, शरीर में उत्पन्न होनेवाले 'सोम' की आहुति दी जाती है, तो सोम का शरीर में ही रक्षण हो जाता है। इस रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] प्रभु की उपासना में प्रवृत्त हों, [ख] ज्ञान की वृद्धि में सदा लगे रहें और [ग] यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त हों । इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (स्वर्विदि) = [स्वृ शब्दे ] स्तुति शब्दों को [विद लाभे] प्राप्त करनेवाले, अर्थात् प्रभु का स्तवन करनेवाले, (दिविस्पृशि) = प्रकाश में स्पर्श करनेवाले, अर्थात् प्रकाशमय जीवनवाले, (अग्नौ) = गतिशील [अगि गतौ] पुरुष में (आहुतम्) = जिसकी आहुति दी जाती है और (जुष्टम्) = जो प्रीतिपूर्वक सेवन किया जाता है, वह (हविः) = यह सोमरूप हवि (पान्तम्) = शरीर का रक्षण करनेवाली है, (अजरम्) = कभी भी जीर्ण न होने देनेवाली है [ न जरा यस्मात्] । सोम के शरीर में ही आहुत करने के द्वारा हम शरीर का रोगों से बचाव कर पाते हैं और इस शरीर में जीर्णता को नहीं आने देते। [२] (तस्य) = उस सोमरूप हवि के (भर्मणे) = भरण के लिये, (भुवनाय) = उत्पादन के लिये तथा (धर्मणे) = धारण के लिये (देवाः) = देववृत्ति के व्यक्ति (स्वधया) = आत्मतत्त्व के धारण के द्वारा (कम्) = सुख को (पप्रथन्त) = विस्तृत करते हैं। सोम के रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] प्रभु का स्मरण करें। यह प्रभु स्मरण हमें विलास के मार्ग पर जाने से बचाता है। प्रभु स्मरण के अभाव में विलास की वृत्ति बढ़कर विनाश ही विनाश हो जाता है। [ख] साथ ही प्रसन्न रहना भी आवश्यक है। शोक, क्रोध, ईष्यादि वृत्तियाँ भी सोम के विनाश का कारण बनती हैं। इसीलिए ब्रह्मचारी के लिए क्रोध, शोक आदि का त्याग आवश्यक है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सोम का रक्षण ही उसे नीरोग व अजर बनाता है। इसके रक्षण के लिए आवश्यक है कि [क] प्रभु का स्मरण करें, [ख] ज्ञान प्राप्ति में लगे रहें, [ग] सदा क्रियाशील बने रहें ।
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ब्रह्ममुनि

अस्मिन् सूक्ते सूर्यविद्युदादीनां व्यवहाराः परमात्मनो ज्ञानप्रसादलाभास्तस्योपासनाप्रकाराश्च वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्विदि) या सूर्यं विन्दते प्राप्नोति तथाविधे “स्वरादित्यो भवति” [निरु० २।१४] (दिविस्पृशि) दिवमाकाशं स्पृशति यस्तस्मिन् (अग्नौ) यज्ञाग्नौ (हविः-पान्तम्) हव्यं यत् पानीयं भक्षणीयम् “पा पाने” [स्वादि०] ततः “जॄविशिभ्यां झच्” [उणा० ३।१२६] इति बाहुलकात् झच्-कर्मणि “झोऽन्तः” [अष्टा० ७।१।३] (अजरम्) संसारे गतिशीलं प्रसरणस्वभावं (आहुतम्) अभिहुतं प्रेरितं (जुष्टम्) प्रीतं (तस्य भर्मणे) तस्य भरणाय (भुवनाय) भावनाय (धर्मणे) धारणाय च (स्वधया) अन्नेन “स्वधा-अन्ननाम” [निघ० २।७] (कं पप्रथन्त) सुखकरमग्निं प्रथयन्ति विद्वांसः, इति निरुक्तानुसारी खल्वर्थः ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Devas, the divines of humanity and divinities of nature, with food and reverence, offer delicious, expansive, loved and solemnly dedicated havi into the holy fire which rises to the skies and reaches the sun. Thus do they exalt Agni so that they may well be, rise and exalt in the gracious order of Agni under the divine shelter and support of the order.