पदार्थान्वयभाषाः - [१] शरीर में प्रभु वैश्वानर अग्नि के रूप से रहते हैं। इस वैश्वानर अग्नि में, शरीर में उत्पन्न होनेवाले 'सोम' की आहुति दी जाती है, तो सोम का शरीर में ही रक्षण हो जाता है। इस रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] प्रभु की उपासना में प्रवृत्त हों, [ख] ज्ञान की वृद्धि में सदा लगे रहें और [ग] यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त हों । इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (स्वर्विदि) = [स्वृ शब्दे ] स्तुति शब्दों को [विद लाभे] प्राप्त करनेवाले, अर्थात् प्रभु का स्तवन करनेवाले, (दिविस्पृशि) = प्रकाश में स्पर्श करनेवाले, अर्थात् प्रकाशमय जीवनवाले, (अग्नौ) = गतिशील [अगि गतौ] पुरुष में (आहुतम्) = जिसकी आहुति दी जाती है और (जुष्टम्) = जो प्रीतिपूर्वक सेवन किया जाता है, वह (हविः) = यह सोमरूप हवि (पान्तम्) = शरीर का रक्षण करनेवाली है, (अजरम्) = कभी भी जीर्ण न होने देनेवाली है [ न जरा यस्मात्] । सोम के शरीर में ही आहुत करने के द्वारा हम शरीर का रोगों से बचाव कर पाते हैं और इस शरीर में जीर्णता को नहीं आने देते। [२] (तस्य) = उस सोमरूप हवि के (भर्मणे) = भरण के लिये, (भुवनाय) = उत्पादन के लिये तथा (धर्मणे) = धारण के लिये (देवाः) = देववृत्ति के व्यक्ति (स्वधया) = आत्मतत्त्व के धारण के द्वारा (कम्) = सुख को (पप्रथन्त) = विस्तृत करते हैं। सोम के रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] प्रभु का स्मरण करें। यह प्रभु स्मरण हमें विलास के मार्ग पर जाने से बचाता है। प्रभु स्मरण के अभाव में विलास की वृत्ति बढ़कर विनाश ही विनाश हो जाता है। [ख] साथ ही प्रसन्न रहना भी आवश्यक है। शोक, क्रोध, ईष्यादि वृत्तियाँ भी सोम के विनाश का कारण बनती हैं। इसीलिए ब्रह्मचारी के लिए क्रोध, शोक आदि का त्याग आवश्यक है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में सोम का रक्षण ही उसे नीरोग व अजर बनाता है। इसके रक्षण के लिए आवश्यक है कि [क] प्रभु का स्मरण करें, [ख] ज्ञान प्राप्ति में लगे रहें, [ग] सदा क्रियाशील बने रहें ।